इसलिये जरूरी है EVM,
ई.व्ही.एम. को लेकर उठा राजनीतिक बवंडर गुजरात और कर्नाटक चुनाव परिणामों से कुछ शांत हुआ है। ऐसे में जरूरी है कि जरा उन दिनों को याद कर लिया जाए जब हमारे चुनाव ई.व्ही.एम. से नहीं बल्कि छपे हुये मतपत्रों पर सील लगाकर होते थे। आज की नई पीढ़ी को तो अंदाज भी नहीं है कि ई.व्ही.एम. आने के पहले चुनाव में वोटों की गिनती एक लंबी और उलझी हुई प्रक्रिया से होती थी।
मुझे याद है कि विधानसभा चुनावों के वोटों की गिनती सुबह 6 बजे से प्रारंभ होकर आमतौर पर अगले दिन सुबह 5-6 बजे तक चलती थी। इस तरह वोट गिनने वाले कर्मचारी और अधिकारी बिना रूके 18 से 24 घंटे तक वोट गिनते थे। जबकि लोकसभा चुनावों के वोटों की गिनती आमतौर 40-45 घंटे निरंतर चलती थी। जहां कहीं पुर्नमतगणना की नौबत आती थी तो वहां के वोट गिनने वाले अधिकारी/कर्मचारियों की तो शामत ही आ जाती थी।
अगर किसी वोटर ने चुनाव चिन्ह पर लगाई जाने वाली मोहर सही जगह लगाने के बजाय अगर इधर उधर लगा दी तो ऐसे वोट अलग निकाले जाकर सहायक निर्वाचन अधिकारी को दिये जाते थे जो हर वोट को देखकर ये फैसला करते थे कि वो वोट किस प्रत्याशी को दिया गया है या निरस्त करने लायक है। इस बारे में जो विवेकाधिकार जिला निर्वाचन अधिकारी और सहायक निर्वाचन अधिकारी मतगणना के पास थे कभी कभी उनके दुरूपयोग के किस्से सुनाई देते थे।
मुझे याद है कि कि हर चुनाव में मतदाताओं की संख्या से 5 या 10 प्रतिशत अधिक मतपत्र छपवाए जाते थे। यदि किसी विधानसभा में 01 लाख मतदाता हैं तो 01 लाख से अधिक ही मतपत्र छपते थे। इस तरह बड़े पैमाने पर कागज इस कार्य में खर्च होता था और इस तरह लाखों पेड़ चुनावी मतपत्रों का भोजन बनते थे। ई.व्ही.एम. मशीन आने से अब केवल प्रति मतदान केन्द्र एक मतपत्र के मान से मतपत्र छपते हैं। याने हर चुनाव में लाखों वृक्षों की रक्षा हो रही है। मतपत्रों की छीना झपटी एक मामूली बात थी जिससे मतदान दल की जान सांसत में रहती थी। बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में असामाजिक तत्वों के द्वारा बड़े पैमाने पर बूथ कैपचरिंग इन्हीं मतपत्रों को लूटने के लिये होती थी।
पिछले महीने हुये उप चुनावों में ई.व्ही.एम. मशीन खराब हो जाने के मुद्दे को ऐसे उठाया गया जैसे कि दुनिया में कभी कोई और मशीन खराब ही नहीं होती। हम जानते हैं कि मंहगी से मंहगी कारें हों या अंतरिक्ष यान कई बार उनमें भी खराबी आती है अर्थात् मशीनों का खराब होना एक सामान्य बात है। आसमान में उड़़ते वायुयान भी दुर्घटनाग्रस्त होते हैं। तब कोई ये बात नहीं करता कि अंतरिक्ष में प्रक्षेपण या हवाई यात्रायें बंद कर देनी चाहिये। सही बात तो यह है कि वोटिंग मशीनों से चुनाव प्रक्रिया पहले से ज्यादा तेज, निष्पक्ष, आसान और विश्वसनीय हुई है। पहले मतगणना में लगने वाले समय में भी नाटकीय रूप से कमी आई है। विधानसभा का चुनाव हो या लोकसभा का मतगणना के पहले ही दिन दोपहर का भोजन होते होते अधिकांश चुनाव परिणाम सामने आ जाते हैं। वी.वी.पेट मशीनों के इस्तेमाल से मतदान प्रक्रिया की शुद्धता और अधिक सुनिश्चित हो गई है। विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा अलग अलग समय पर ई.व्ही.एम. मशीनों की निष्पक्षता पर सवाल उठाये जरूर गये हैं लेकिन वे एक राजनीतिक स्टंट और पराजित पक्ष द्वारा मुंह छुपाने के लिये गढ़े गये बहाने के अलावा और कुछ नहीं है।
ई.व्ही.एम. मशीन निष्पक्ष और सुरक्षित है क्योंक तकनीकी सुरक्षा उपायों के साथ साथ निर्वाचन में उसके उपयोग की प्रणाली का सख्त प्रोटोकाल उसे दोहरी सुरक्षा देता है।
तकनीकी दृष्टि से ये छेड़छाड़ या गड़बड़ी इसलिए असंभव है क्यांकि हर ई.व्ही.एम. एक स्वतंत्र मशीन है जो कि केवल एक बार प्रोग्रामिंग के लिये निर्मित है इसे किसी भी इन्टरनेट या नेटवर्क से जोड़ा नहीं जा सकता और ना ही नियंत्रित किया जा सकता।
इलेक्ट्रॉनिक रूप से सुरक्षित इन मशीनों का साफ्टवेयर रक्षा मंत्रालय की अधीनस्थ इकाई बी.ई.एल. और परमाणु ऊर्जा आयोग की अधीनस्थ इकाई ई.सी.आई.एल. के चुनिन्दा अभियन्ताओं की टीम ने विकसित किया है।
इस साफ्टवेयर, मशीन कोड और उसके सोर्स कोड की सुरक्षा की बहुस्तरीय प्रणाली अभेद्य है।
ई.व्ही.एम. कभी भी किसी बाहरी नेटवर्क या सिग्नल को ग्रहण नहीं कर सकती। मतदाता द्वारा वोट दर्ज करते ही बेलट यूनिट निष्क्रिय हो जाती है और तभी पुनः सक्रिय होती है जब कन्ट्रोल यूनिट पर बैठा मतदान अधिकारी उसे सक्रिय होने का बटन दबाता है। 2006 के बाद से दूसरी पीढ़ी की ई.व्ही.एम. मशीनें काम में ली जा रही है जिनमें रियल टाइम क्लाक, फुल डिस्प्ले पेनल, तिथि और समय अंकन की व्यवस्था है। बेलट यूनिट पूर्णतः कन्ट्रोल यूनिट से नियंत्रित होती है, कन्ट्रोल यूनिट में कोई रेडियो फ्रीक्वेन्सी रिसीवर नहीं है, ना ही कोई डाटा-डिकोडर है इसलिए कोई बेतार व्यवस्था इससे सम्पर्क ही नहीं कर सकती।
ई.व्ही.एम. मशीनों के निर्माण, परिवहन, भण्डारण और निर्वाचन में उपयोग का प्रशासनिक प्रोटोकॉल सख्त, विस्तृत और सुविकसित है। वे किसी जेड प्लस सुरक्षा प्राप्त वीवीआईपी की तरह कड़ी सुरक्षा, सतत निगरानी और वीडियो केमरों की नजर में रहतीं हैं।
जब चुनाव में उपयोग के लिये वे स्ट्रांग रूम से निकाल कर तैयार की जाती हैं तब वहां राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि मौजूद होते हैं। ई.व्ही.एम. की पुरानी मेमोरी मिटाकर पूरी मशीन की जॉंच कर जिला निर्वाचन अधिकारी द्वारा उनका प्रथम रेन्डमाइजेशन किया जाता है जिसमें यह तय होता है कि किस विधानसभा में कौनसी मशीन जायेगी।
मतदान दलों के प्रस्थान के कुछ घंटों पहले केन्द्रीय चुनाव प्रेक्षकों की निगरानी में ई.व्ही.एम. का द्वितीय श्रेणी रेन्डमाइजेशन होता है जिससे यह तय होता है कि किस बूथ पर कौनसी मशीन जायेगी।
इन मशीनों का बूथ वार विवरण राजनैतिक दलों को दिया जाता है ताकि वे मतदान केन्द्र पर सूची से मिलाकर तसल्ली कर सकें। मतदान दलों को मशीनें मिलने पर वे खुले मैदान में
बैठकर चेक करते हैं कि पहले से कोई डाटा तो नहीं है और मशीन, उसकी बैटरी ठीक से काम कर रही है। मतदान वाले दिन बूथ-एजेन्टों की उपस्थिति में मॉक-पोल होता है उसमें संतुष्टि के बाद ही मतदान प्रारंभ होता है।
ई.व्ही.एम. को कानूरी दांवपेच का सामाना भी करना पड़ा है ये अलग बात है कि हमारी यह वण्डर मशीन हर अग्नि परीक्षा में खरी ही उतरी है। 2004 में कर्नाटक हाईकोर्ट ने अपने एतिहासिक निर्णय में ई.व्ही.एम. को ’’भारत का गौरव’’ बताया।
सही बात तो यह है कि दुनिया की सबसे कामयाब चुनावी मशीन हमारे ही पास है और चुनाव दर चुनाव निखरती जा रही है। सितम्बर 2018 में तो तीसरी पीढ़ी की ई.व्ही.एम. (वीवीपेट) आ रही है जो और भी बेहतर होगी।
इस लेख के लेखक श्री राजीव शर्मा भारतीय प्रशासनिक सेवा के एमपी कैडर में 2003 बैच के आईएएस अफसर है।
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