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भोपाल गैस त्रासदी: 31 साल गुजर गए लेकिन पीड़ितों को आज भी न्याय का इंतजार

ठीक 31 साल पहले दो-तीन दिसंबर 1984 की दरमियानी रात भोपाल में मौत का कहर बरसाने वाली रात थी। तब से लेकर अब तक इस भीषण भोपाल गैस त्रासदी को गुजरे हुए 31 वर्ष हो गए हैं, लेकिन आज भी इस इलाके में जाने पर लगता है मानों कल की ही बात हो. आज 31 साल बाद भी हर सुबह दुर्घटना वाले दिन की अगली सुबह ही नजर आती है. यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से जहरीले गैस रिसाव और रसायनिक कचरे के कहर का प्रभाव आज भी बना हुआ है. बच्चे अपंग होते रहे, मां के दूध में जहरीले रसायन पाये जाने की बात भी सामने आई, चर्म रोग, दमा, कैंसर और न जाने कितनी बीमारियां धीमा जहर बनकर आज भी गैस प्रभावितों को अपनी चपेट में ले रही हैं. मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में आज से 31 वर्ष पहले हुए दुनिया के सबसे बड़े औद्योगिक हादसे को लोग अभी तक नहीं भूल पाए हैं.

क्या थी त्रासदी - मध्य प्रदेश के भोपाल शहर मे 2-3 दिसम्बर सन् 1984 की रात भोपाल वासियों के लिए काल की रात बनकर सामने आई। इस दिन एक भयानक औद्योगिक दुर्घटना हुई। इसे भोपाल गैस कांड, या भोपाल गैस त्रासदी के नाम से जाना जाता है. 2-3 दिसम्बर 1984 को युनियन कार्बाइड कारखाने से अकस्मात मिथाइल आइसोसायनाईट अन्य रसायनों के रिसाव होने से कई जाने गईं थी. इस त्रासदी को 28 साल पूरे होने आए हैं, उस त्रासदी के वक्त जो जख्म यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से निकली जहरीली हत्यारी गैस ने दिए थे वह आज भी ताजा हैं. हजारों लोगों को आधी रात हत्यारी गैस ने मौत की नींद सुला दिया, सैंकड़ो को जानलेवा बीमारी के आगोश में छोड़ गई यह जहरीली गैस. आज भी गैस के प्रभाव उन लोगों में साफ देखे और महसूस किए जा सकते हैं. उनकी यादों में वह आधी रात दहशत और दर्द की काली स्याही से इतिहास बनकर अंकित हो गई है. उसे न अब कोई बदल सकता है और न ही मिटा सकता.

पीछा छोड़ रहा जहर - भोपाल गैस त्रासदी के 2 साल बाद भी यूनियन कार्बाइड का जहरीला प्रदूषण पीछा नहीं छोड़ रहा है। सेंटर फॉर साइंस एंड इंवायरंमेंट द्वारा किए गए परीक्षण में इस बात की पुष्टि हुई है कि फैक्ट्री और इसके आसपास के 3 किमी क्षेत्र के भूजल में निर्धारित मानकों से 40 गुना अधिक जहरीले तत्व मौजूद हैं। मध्य प्रदेश प्रदूषण बोर्ड के अलावा कई सरकारी और गैरसरकारी एजेंसियों ने पाया है कि फैक्ट्री के अंदर पड़े रसायन के लगातार जमीन में रिसते रहने के कारण इलाके का भूजल प्रदूषित हो गया है. कारखाने के आस-पास बसी लगभग 17 बस्तियों के ज्यादातर लोग आज भी इसी पानी के इस्तेमाल को मजबूर हैं. एक सर्वेक्षण के मुताबिक इसी इलाक़े में रहने वाले कई लोग शारीरिक और मानसिक कमजोरी से पीड़ित है. गैस पीड़ितों के इलाज और उन पर शोध करने वाली संस्थाओं के मुताबिक लगभग तीन हजार परिवारों के बीच करवाए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि इस तरह के 141 बच्चे हैं जो या तो शारीरिक, मानसिक या दोनों तरह की कमजोरियों के शिकार हैं कई के होंठ कटे हैं, कुछ के तालू नहीं हैं या फिर दिल में सुराख हैं, इनमें से काफी सांस की बीमारियों के शिकार हैं. दूसरी और इसे एक विडम्बना ही कहेंगे कि अब तक किसी सरकारी संस्था ने कोई अध्ययन भी शुरू नहीं किया है या न ये जानने की कोशिश की है कि क्या जन्मजात विकृतियों या गंभीर बीमारियों के साथ पैदा हो रही ये पीढियां गैस कांड से जुड़े किन्ही कारणों का नतीजा हैं या कुछ और. और ना ही शासन ने अब तक इस तरह के बच्चों को लेकर कोई कार्रवाई नहीं की है. इन बस्तियों में नजर दौडाने पर अधूरा पडा सरकारी काम अपने ढुलमुल रवैये की कहानी खुद बताता है.

कितने हुए प्रभावित - जिस वख्त यह हादसा हुआ उस समय भोपाल की आबादी कुल 9 लाख के आसपास थी और उस समय लगभग 6 लाख के आसपास लोग युनियन कार्बाइड कारखाने की जहरीली गैस से प्रभावित हुए थे सरकारी आंकड़ों के मुताबिक लगभग 3000 लोग मारे गए थे. खैर ये थे सरकारी आंकड़े लेकिन यदि गैर सरकारी आंकड़ों की बात की जाए तो अब तक इस त्रासदी में मरने वालों की संख्या 20 हजार से भी ज्यादा है. और लगभग 6 लाख लोग आज भी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझ रहे हैं.

क्या है सरकारी क़वायद - 2-3 दिसंबर 1984 की दरमियानी रात हुई गैस के रिसाव के बाद 1985 में भारत सरकार ने भोपाल गैस विभीषिका अधिनियम पारित कर जिसके बाद अमेरिका में यूनियन कार्बाइड के खिलाफ अदालती कार्यवाही शुरू हुई. लेकिन इससे पूर्व ही यूनियन कार्बाइड के मुखिया वारेन एंडरसन को 5 दिसंबर 1984 को ही भोपाल आने पर जमानत दे दी गई थी साथ देश से बाहर जाने अनुमति भी. अमेरिकी अदालत ने इसे क्षेत्राधिकार की बात करते हुए अदालती कार्यवाही भारत में ही चलाने के बात कही. जिसके पश्चात भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर फरवरी 1989 को यूनियन कार्बाइड से 470 मिलियन डालर यानि उस वख्त के हिसाब से लगभग सात सौ दस करोड़ इक्कीस लाख रूपए लेना स्वीकार कर लिया. उसमें से मवेशियों के लिए 113 करोड़ और बाकी की राशी लगभग 1 लाख 5 लजार पीडितो के लिए अनुमानित थी जिनको 1989 के आदेशों के मुताबिक 57 हजार रुपये प्रति व्यक्ति मिलाने वाले थे. जबकि उस दौरान तक पीड़ितों की संख्या बढाकर 5 लाख पहुँच गई थी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 31 अक्टूबर 2009 तक पांच हजार चैहत्तर हजार तीन सौ बहत्तर गई पीड़ितों को मुआवजा दिया जा चुका है वह भी सिर्फ 200 रुपये प्रतिमाह अंतरिम राहत के तौर पर. कुछ लोगों का यह कहना है कि गैस पीड़ितों को मुआवजे में कम राशि दी गई है मृतकों के परिवार को महज 1 लाख रुपये की दो किस्त देकर मामला दबा दिया गया. तो कुछ पीड़ितों को मात्र 25 हजार रुपये दे दिए गए.

न्याय को तरस रहे हैं पीड़ित - सदी की सबसे बडी औद्योगिक त्रासदी भोपाल गैस काण्ड के मामले में सीजेएम कोर्ट ने आखिरकार 25 साल बाद सभी आठ दोषियों को दो साल की कैद की सजा सुनाई. सभी दोषियों पर एक-एक लाख रूपए और यूनियन कार्बाइड इंडिया पर पांच लाख रूपए का जुर्माना ठोका गया. इतना ही नहीं सजा का ऎलान होने के बाद ही सभी दोषियों को 25-25 हजार रूपए के मुचलके पर जमानत भी दे दी गई. अब इसे अंधे कानून का अधुरा इंसाफ न कहें तो और क्या कहें. क्योंकि न्याय का इन्तेजार कर रहे गैस पीड़ितों को फिर निराशा ही हाथ लगी है. ये वही गैस पीड़ित हैं जो पिछले 28 सालों से जांच एजेंसियों, सरकार और राजनीतिक दलों द्वारा ठगते आ रहे हैं. आज उन्हें न्याय की उम्मीद थी लेकिन वो भी पूरा नहीं मिला. त्रासदी का मुख्य गुनहगार वारेन एंडरसन अभी भी फरार है. सरकार एंडरसन के प्रत्यर्पण में सफल नहीं हो पाई है. अदालत ने आठों आरोपियों को धारा 304 ए के तहत लापरवाही का दोषी करार दिया था. कोर्ट के फैसले पर गैस पीड़ितों में जमकर रोष है. गैस पीड़ितों ने दोषियों के लियी फांसी की सजा की मांग की है. आश्चर्य जनक तथ्य यह है कि गैस त्रासदी में 25000 से ज्यादा लोग मारे गए थे. और उनके दोषियों को महज 2 साल की सजा दी गई. जबकि कंपनी पर 5 लाख का जुर्माना लगाया गया. क्या 25000 लोगों की मौत के जिम्मेदारों के लिए यह सजा काफी है. 25 साल पहले 2ध्3 दिसंबर 1984 की दरमियानी रात को भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड कारखाने से रिसी जहरीली मिथाइल आइसोसायनेट गैस के कारण 25000 से ज्यादा लोग मारे गए थे. और अनेक लोग स्थायी रूप से विकलांग हो गए थे. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस दुर्घटना के कुछ ही घंटों के भीतर तीन हजार लोग मारे गए थे. अब एक अहम सवाल यह उठता है कि क्या इस फैसले से पीड़ितों को न्याय मिला है ? फैसले के बाद चारों तरफ से तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं. लोग इसे अंधे कानून का अधूरा इंसाफ कह रहे हैं. जब छह दिसंबर 1984 को यह मामला सीबीआई को जांच के मिला था. तब गैस त्रासदी की जांच कर रही सीबीआई ने विवेचना पूरी कर एक दिसंबर 1987 को यूनियन कार्बाइड के खिलाफ यहां जिला अदालत में आरोप पत्र पेश किया था, जिसके आधार पर सीजेएम ने भारतीय दंड संहिता की धारा 304 एवं 326 तथा अन्य संबंधित धाराओं में आरोप तय किए थे. इन आरोपों के खिलाफ कार्बाइड ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और शीर्ष अदालत ने 13 सितंबर 1996 को धारा 304, 326 के तहत दर्ज आरोपों को कम करके 304 (ए), 336, 337 एवं अन्य धाराओं में तब्दील कर दिया. जिससे केस कमजोर हो गया. एक अहम सवाल यह भी है कि क्या जान बूझकर केस को कमजोर करने के कोशिश की गई. धारा 304 (ए) के तहत अधिकतम दो वर्ष के कारावास का ही प्रावधान है. 25 बरस न्याय का इन्तेजार करने वाले गैस पीड़ित छले गए हैं. 25 बरस राजनीतिक दांवपेंच का शिकार होते रहे. अफसोस की बात तो यह है कि इतना बड़ा हादसा होने के बाद इसके जिम्मेदारों को कड़े से कड़ी सजा मिले इसके लिए पीड़ितों को न्याय के लिए 25 बरस का इन्तेजार करना पड़ा. इस हादसे में सबसे ज्यादा प्रभावित ऐसे लोग थे जो रोज कुआ खोदने और रोज पानी पीने का काम किया करते थे. आज 25 साल बाद जब कोर्ट ने फैसला दिया तो दोषियों को 25 हजार के मुचलके पर जमानत भी दे दी गई. और न्याय को तरसते पीड़ित अपनी विवशता और लाचारी दोहराने को मजबूर दिखाई दिए. इसे हमारे देश की विडम्बना कहें या फिर इस देश के निवासियों का दुर्भाग्य, सरकार 11 करोड़ रुपये खर्च कर स्मारक बनाने की बात तो करती है लेकिन भ्रष्टाचार में डूबे सरकारी तंत्र और न्याय प्रक्रिया में सुधार लाकर वास्तविक गैस पीड़ितों न्याय दिलाने की दिशा में कोई सकारात्मक कदम नहीं उठा सकती.

केंद्र नहीं दे रहा मदद - नगरिय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर का कहना है कि गैस त्रासदी एक्ट 1985 के अंतर्गत केंद्र सरकार ने गैस पीड़ितों को मदद देने की पूरी जिम्मेदारी ली थी. इसके बावजूद 1999 से अब तक कोई राशि केंद्र सरकार ने नहीं दी है. राज्य सरकार गैस पीड़ितों पर 250 करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है. राज्य सरकार ने 982 करोड़ रुपए की कार्य योजना केंद्र को भेजी है जो मंजूर की जानी चाहिए. उन्होंने कहा कि राज्य सरकार एक स्मारक भी बनाना चाहती है. इसके लिए राज्य सरकार ने 11 करोड़ रुपए भी मंजूर किए हैं.

बहरहाल अफसोस की बात तो यह है कि इतना बड़ा हादसा होने के बाद इसके जिम्मेदारों को कोई सजा नहीं मिली सजा तो दूर इस हादसे से प्रभावित हुए लोगों की सही न्याय भी नहीं मिला. जबकि इस हादसे में सबसे ज्यादा प्रभावित ऐसे लोग थे जो रोज कुआ खोदने और रोज पानी पीने का काम किया करते थे. काफी विरोध के बाद 1992 में भोपाल की एक अदालत ने वारेन एंडरसन के खिलाफ वारंट जारी कर सीबीआई से इस मामले में कार्यवाही करने को कहा था. 2001 से यूनियन कार्बाइड पर मालिकाना डाओ केमिकल्स अमेरिका का है जिसने अभी तक कारखाना परिसर से जहरीला रासायनिक कचरा हटाने में भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. और आज भी 28 वर्षों से गैस पीड़ित इस जख्म के साथ दर्द भरा जीवन जीने को मजबूर है और मरहम को तरस रहे हैं इसे हमारे देश की विडम्बना कहें या फिर इस देश के निवासियों का दुर्भाग्य, की सरकार भ्रष्टाचार में डूबे सरकारी तंत्र में सुधार लाकर वास्तविक गैस पीड़ितों न्याय दिलाने की दिशा में कोई सकारात्मक कदम नहीं उठा सकती.

रात के 12 बजकर पांच मिनट पर जागा शैतान

1984 के 2-3 दिसंबर की वो दरमियानी रात थी। धुंध भरे अंधेरे में शहर भोपाल के साथ-साथ यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री भी सोई पड़ी थी। तकनीकी वजहों से पिछले कई दिनों से फैक्ट्री में प्रोडक्शन ठप था लेकिन फैक्ट्री के 610 टैंक में एक शैतान सांस ले रहा था। जी हां, इस टैंक में भरी थी बेहद खतरनाक, जानलेवा, जहरीली मिथाइल आइसोसायनाइड। मौके पर तैनात फैक्ट्री के सुपरवाइजर्स को रात 11 बजे ही इस टैंक में मची खलबली का अहसास होने लगा था लेकिन ये खलबली आगे कितनी खतरनाक होने जा रही थी किसी को इसका अहसास नहीं था। टैंक का बढ़ता तापमान सबकी पेशानी पर लकीरें खींच रहा था। हालात पर काबू पाने की मशक्कत जारी थी लेकिन जल्द ही कर्मचारियों को अहसास हो गया कि अब हालात उनके हाथ से निकल चुके हैं।

घबराए टेक्नीशियंस ने आखिरी कोशिश की और इस टैंक से जुड़ने वाली तमाम पाइप लाइंस काट दीं। अंदाजा था कि शायद इसी तरह टैंक में हो रही रिएक्शन थम जाए। लिक्विड का गैस बनना रुक जाए लेकिन ऐसा नहीं हुआ और धमाके के साथ टैंक का सेफ्टी वाल्व उड़ गया। अब अलार्म बजाने के सिवा कोई चारा नहीं था और आधी रात को ठीक बारह बज कर पांच मिनट पर यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से खतरे का सायरन बजा लेकिन जब तक सायरन की आवाज नींद में डूबे लोगों के कान तक पहुंचती शैतान जाग चुका था। उस मौके पर फैक्ट्री में तैनात रहे लोग भी मानते हैं कि इस शैतान को यूनियन कार्बाइड ने ही पाला था। वो तमाम सुरक्षा इंतजामात का उल्लंघन कर रही थी।

सर्द हवा पर सवार जहरीली मिथाइल आईसोसायनाइड गैस शहर के भीतर घुस चुकी थी। इस गैस का असर नींद में दुबके हुए लोगों पर हुआ। उनका दम घुटने लगा। बेचैनी सी महसूस हुई और आंख खोलते ही मिर्ची का धुआं सा लगा। नींद उचटने के बाद जो बाहर निकले वो सीधे गैस की चपेट में थे। हर सेकेंड के साथ एक नया आदमी गैस का शिकार हो रहा था और घंटे भर के भीतर पुराने भोपाल शहर में मौत सड़कों पर नाच रही थी। बदहवास लोग इस जहर के असर से बचने के लिए जितना भाग रहे थे, मौत उन्हें चुन-चुन कर मार रही थी। किसी को पता नहीं था कि हुआ क्या है। किसी को ये भी पता नहीं था कि मौत सिर्फ अकेले उसी का पीछा कर रही है या और भी लोग इसके शिकार हैं।

जहर का पता नहीं था, कैसे होता इलाज

रात के तकरीबन डेढ़ बजे जहर के शैतान ने भोपाल के मशहूर हमीदिया अस्पताल की इमरजेंसी पर दस्तक दी। बीमार घबराए और दहशत में डूबे लोगों के अस्पताल पहुंचने का सिलसिला शुरू हुआ। जब तक एक-दो लोग आए इमरजेंसी में मौजूद डॉक्टरों की समझ में कुछ नहीं आया लेकिन जल्द ही ये तादाद दर्जनों में तब्दील हो गई और तब सरकारी अमले को गैस कांड की गंभीरता का अहसास हुआ। उस वक्त भोपाल के पुलिस कप्तान थे आईपीएस स्वराज पुरी। रात की गश्त पर निकले पुरी को सड़कों की हलचल से अहसास हो गया कि कुछ गड़बड़ जरूर है। उन्होंने उस ओर बढ़ने की कोशिश की जिधर से लोग भागे आ रहे थे लेकिन जल्द ही खुली जीप के भीतर उनका गला सूखने लगा। ये हवा के झोंके के साथ आ रही गैस का असर था। उस जहरीली रात स्वराज पुरी पूरे वक्त हालात से लड़ते रहे। कभी सड़कों पर तो कभी कंट्रोल रूम में।

सरकारी अमले के दिमाग में अब तक तस्वीर साफ हो चुकी थी। जहर की शक्ल में ये कहर यूनियन कार्बाइड की चिमनियों से बरसा था। लेकिन इस जहर का असर कहां तक था और कितना था इसका अंदाजा मुश्किल था। दहशत में डालने वाली शुरुआती खबरें हमीदिया अस्पताल से आनी शुरू हुईं। जहां लाशों की तादाद हर क्षण बढ़ती जा रही थी। जब तक प्रशासन अस्पताल का मोर्चा संभालने की रणनीति बनाता कप्तान स्वराज पुरी को पुराने शहर की पुलिस चैकियों से बिगड़ते हालात की खबरें मिलने लगीं। आखिरकार उन्होंने खुद मोर्चा संभाला। जहां से भी खबर मिलती वहां पर अधिकारियों को हालात संभालने के निर्देश दिए जाते लेकिन ये सारी कोशिशें बेमानी थीं। यूनियन कार्बाइड का शैतान लगातार जहरीली गैस उगल रहा था। आईपीएस स्वराज पुरी ने उन हालात को बयान करते हुए बताया- वो मेरे पास आए। मैंने पूछा, कौन सी गैस है? उन्होंने कहा-पता नहीं। मैंने पूछा, इसके एंटीडोट्स क्या हैं? उन्होंने कहा-पता नहीं। मैंने कहा, तो फिर आप यहां आए क्यों हैं। गेट लॉस्ट।

सरकारी अमले को ये तो पता चल गया कि गैस की लीकेज यूनियन कार्बाइड से हुई है। लेकिन अब सामने खड़े थे दो बड़े सवाल। गैस का रिसाव बंद हो तो कैसे और जो गैस रिसी है वो क्या है ये जाने बगैर मरते लोगों की जान बचाना मुश्किल था लेकिन ये बताने वाला कोई नहीं था क्योंकि खुद यूनियन कार्बाइड ने तमाम सच छुपा रखे थे।

एक डॉक्टर जिसे नया नाम मिला डॉक्टर डेथ

हमीदिया अस्पताल में बीमारों की तादाद बढ़ती जा रही थी। हालात का मुकाबला करने के लिए डॉक्टरों को इमरजेंसी कॉल भेजी गई। जूनियर डॉक्टरों को जगा कर ड्यूटी पर लगाया गया। लेकिन डॉक्टरों का सारा अमला लाचार था। उन्हें ये तो पता लग रहा था कि लाशों पर जहरीले केमिकल का असर है। बीमारों के लक्षण भी उन्हें जहर का शिकार बता रहे थे। मगर ये जहर है क्या ये जाने बगैर इलाज मुश्किल था। तब अचानक और पहली बार एक सीनियर फोरेंसिक एक्सपर्ट की जुबान पर आया मिथाइल आईसोसायनाइड का नाम।

सायनाइड एक ऐसा जहर जिसे ईजाद करने वाला ही उसका स्वाद बताने के लिए जिंदा नहीं बचा लेकिन उस रात भोपाल में एक पूरी आबादी सायनाइड की सांस ले रही थी। मगर रात के अंधेरे में कौन, कहां किन हालात में था इसका अंदाजा ही नहीं लग रहा था। प्रशासन को केवल उनकी खबर मिल रही थी जो अस्पतालों तक आ रहे थे या सड़कों पर निकल रहे थे लेकिन जैसे-जैसे वक्त गुजर रहा था हालात बिगड़ते जा रहे थे।

हमीदिया अस्पताल के कंपाउंड में लाशों की कतार लगी थी और सवाल था कि इतनी लाशों का किया क्या जाए। इन लाशों की फिक्र थी तो एक ऐसे शख्स को जिसे 3 दिसंबर 1984 के बाद सारा भोपाल डॉक्टर डेथ के नाम से जानता है। इस शख्स ने गैस की शिकार लगभग तीन हजार लाशों का पोस्टमॉर्टम किया। तमाम लावारिस लाशों की तस्वीरें खिंचवाईं और उनका रिकॉर्ड तैयार करके रखवाया ताकि आगे जाकर उनकी पहचान की जा सके।

लाशों का पोस्टमॉर्टम ही ये तय करने वाला था कि मौत की वजह क्या है। इन लाशों का गुनहगार कौन है। जो जहर इतनी जिंदगियों को लाश बना गया वो आखिर आया कहां से। लेकिन इसी भोपाल शहर में एक शख्स ऐसा भी था जिसे यूनियन कार्बाइड में सोए शैतान की खबर थी। उसे अहसास था कि ये शैतान कभी भी जाग सकता है। इस शख्स का नाम है राजकुमार केसवानी।

उसे अफसोस है अपनी खबर के सच होने का

भोपाल के एक स्थानीय दैनिक में पत्रकार राजकुमार केसवानी ने यूनियन कार्बाइड में खौलते जहर की तमाम खबरें दीं। मगर इन खबरों पर कान देने वाला कोई नहीं था। बेखबर सरकार चैन की नींद सोती रही। राजकुमार केसवानी लगातार खबरें लिखते रहे। उन्होंने राष्ट्रीय अखबारों में भी कार्बाइड के कारनामे का खुलासा किया मगर भोपाल में बैठी सरकार ही कंपनी की निगहबान बनी बैठी थीं। खबरनवीस को अपनी लिखी खबर के सच होने का गुरूर होता है मगर राजकुमार केसवानी को गहरा अफसोस है। उन्होंने इस सीरीज में आखिरी खबर 8 अक्टूबर 1984 को बेहद गुस्से में लिखी थी। हेडिंग थी-अब भी सुधर जाओ वर्ना मिट जाओगे।

एक सतर्क पत्रकार की चेतावनी को नजर अंदाज करने का नतीजा पूरा भोपाल भुगत रहा था। लेकिन हालात कितने भयावह हो चुके थे इसका अंदाजा तब हुआ जब भोपाल में 3 दिसंबर की सुबह सूरज निकला। भोपाल के रेलवे स्टेशन ने सारी रात जहर का असर झेला था। कंट्रोल रूम को स्टेशन के खराब हालात की खबर मिल रही थी। सुबह-सुबह भोपाल के आला अफसरों का अमला रेलवे स्टेशन पहुंचा। तकरीबन पांच बज रहे थे। बहैसियत कप्तान स्वराज पुरी भी रेलवे स्टेशन पहुंचे। वहां का जो वाकया वो बयान करते हैं वो रोंगटे खड़े कर देता है। लोग स्टेशन पर ऐसे पड़े थे जैसे सोए पड़े हों। हर तरफ लाशें ही नजर आ रही थीं।

3 दिसंबर की सुबह सूरज चढ़ता गया और चढ़ते सूरज के साथ भोपाल के आसमान में चीलें और गिद्ध मंडराने लगे। इनका मंडराना ही गवाही दे रहा था कि भोपाल की सड़कों पर कितनी लाशें बिछी हैं। इन लाशों में लोग तो थे ही, बड़ी तादाद में बेजुबान जानवर और मवेशी भी थे लेकिन जब इंसानों की लाशें उठाने वाला ही कोई नहीं था तो जानवरों की फिक्र कौन करता। भोपाल के कलेक्टर रहे मोती सिंह शहर और सड़कों के जो हालात बयान करते हैं वो दोजख से भी बुरा है। इंसान ही इंसानी लाशों को जानवरों की तरह उठा रहे थे। गाड़ियों में भर रहे थे। हर तरफ लाशों से उठ रही बदबू भरी थी। लेकिन वहां तो जिंदा इंसान भी लाशों में तब्दील हो गया था। जो बच गए थे उनके सारे अहसास ही जैसे मर गए थे।

यूं तो सरकारी आंकड़ा साढ़े तीन हजार लाशों तक पहुंचा लेकिन गैरसरकारी आंकड़ा कहता है कि मरने वाले दस हजार से ज्यादा थे। कहते हैं कि इसने 40 हजार जानें ली हैं। जो बेमौत मारे गए, जिनके अपने उनसे जुदा हो गए उन्हें आखिरी इंसाफ कभी मिलेगा भी या नहीं कोई नहीं जानता लेकिन तारीख के काले पन्नों में भोपाल की वो जहरीली रात हमेशा के लिए दर्ज रहेगी।

एक दिन में 700 पोस्टमॉर्टम
2 दिसंबर 1984 की रात भोपाल सोया था। 3 दिसंबर 1984 की सुबह जब भोपाल जागा तो कयामत लोगों का इंतजार कर रही थी। शहर की सरजमीं पर बिछी थीं 4000 से ज्यादा लाशें। उन खौफनाक पलों के सबसे बड़े गवाह हैं डॉक्टर डेथ। भोपाल के लोग उनको इसी नाम से जानते हैं।

उनके लिए भी उन दर्द के लम्हों को दोबारा जीना आसान नहीं, कलेजा चाहिए। वो बताते हैं कि कैसे 25 साल पहले मानवता पर टूटा था एक गैस का कहर। उस रोज एक ही दिन में उन्होंने किया था सात सौ अस्सी लाशों का पोस्टमॉर्टम। एक हफ्ते में 3 हजार लाशों के साथ चीरफाड़ करने के बाद मौत नाचती थी उनकी आंखों के सामने। विभाग में तीन चार लोग थे। सरकार से परमीशन ली कि सबका पोस्टमॉर्टम नहीं करेंगे।

वे ही वो शख्स हैं जिन्होंने पहली बार दुनिया को बताया था यूनियन कार्बाइड के किलर टैंक नंबर 610 का सच क्योंकि किलर टैंक नंबर 610 से निकली गैस का एनालिसिस किया गया तो उसमें से वो पदार्थ मिले जो लाशों पर भी पाये गये। मतलब गैस कहीं और से नहीं उसी टैंक से आई थी। आज भी दर्द का वो मंजर यादकर उनका कलेजा फट जाता है। इतना बड़ा हादसा था। एक मां एक छोटे बच्चे को गोद में लेकर पड़ी हुई है और मर गई है। एक बाप दो बच्चों को लेकर पड़ा है। इस खबर पर आप अपनी राय दें।


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