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कन्हैया के नाम टीवी एंकर राकेश पाठक खुला खत… तुम बरगलाए गए हो, तुम बरगला रहे हो !

प्रिय कन्हैया,
आज तुम्हे सुना। उम्मीद थी कि शायद आज फिर से तुम्हे नए तरह से समझा जा सकता है। तुमने भूख से आज़ादी की बात की। तुमने समाजवाद की बात की। तुमने आर्थिक समानता की बात की। ये वो स्वप्न हैं जो सदियों से दिखाए जाते रहे हैं। मध्यमार्गी राजनीति करनेवालों से लेकर लाल सूरज (जैसा की तुमने कहा) की रुखी उपासना करनेवालों तक ने ये स्वप्न परोसे हैं कई-कई सालों से पार होते हुए।

यकीन मानो जब भी भूख, गरीबी, समाजवाद, अंतिम आदमी की पीड़ा की बात होती है दिल भीगता है। और फिर बहुत सारे दिल उम्मीदों से भरते हैं और फिर वही उम्मीदें किरच कर टूटती हैं और आदमी खत्म हो जाता है। फिर भी….ये बातें गुलाम अली की गज़लों के तरह हैं जो अच्छी तो लगती हैं। लग रही हैं। शायद लगती रहेंगी। पर मेरे कुछ सवाल हैं। लाल सूरज कहीं उगा नहीं ऐसा नहीं है। निकला चमका और कई-कई दशकों से निकला, पश्चिम बंगाल में। लेकिन ये लाल सूरज कितने गरीबों, किसानों, मज़दूरों महिलाओं, आदिवासियों की ठंडी ज़िंदगियों को हरारत दे पाया ये तो बताना पड़ेगा। शिंगूर में किसानों की ज़मीन के बेज़ा अधिग्रहण तुम्हारे ही लाल सूरज का ताप था शायद…। भूले नहीं होगे तुम।

समाजवाद, समतावाद, साम्यवाद…। तुम और तुम्हारे लोग या तुम्हारे जैसे लोग ये तय करें कि समाजवाद के नाम पर इस देश में सिर्फ प्रतिक्रियावाद चलेगाै? बदलावाद चलेगा? अगर साम्यवाद कोई विचारधारा है…तो वो किसी जाति या मनुवाद जैसी खांचे में बांटनेवाली विचारधारा के साथ कैसे चल सकती है। जहां साम्य है वहां वर्ग कहां? इसलिए तुम और तुम्हारे लोग यहां खोखले दिखते हो। ब्राह्मणवाद के खिलाफ मुहिम चलाओ…तो फिर कोई दूसरा वर्ग दलितवाद के खिलाफ जंग छेड़ देगा…आज नहीं तो कल…कल नहीं तो वर्षों बाद और ये लाल सूरज के भीतर सतत चलने वाली नाभिकीय संलयन-विखंडन की प्रक्रिया बन रह जाएगी।

इसका हासिल है क्या? वर्ग विहीन समाज? वो कभी नहीं बनेगा….वर्ग रहेंगे…अगर सिर्फ तुम और तुम्हारे जैसे लोग ही रहेंगे तो फिर कुछ न चल पाएगा। फिर एक घटना घटेगी…जैसे चीन में लोकतंत्र के समर्थन में Tiananmen Square पर उतरे विद्यार्थियों को टैंको से पीस दिया गया था। वर्ग तो तुम भी खींचते हो या तो मेरी तरह बनो या फिर दूर खड़े हो। ऐसा क्यों नहीं कि तुम जैसे हो वैसे चलते रहो…सब मिलकर चलें…देश आगे बढ़े।

वर्गों का रहना ही इकोसिस्टम का संतुलन है। लेकिन नेचर कभी भी वर्गों के बीच अंतर नहीं करता ये प्रकृति का नियम है और विज्ञान का भी। ये तुम जानोगे जब विज्ञान के सूक्ष्म नियमों को समझ पाओगे। और समझोगे तब जब सब पढ़ोगे…मनन करोगे…”लाल लकीर” को छोड़कर…। वैसे मैं तुम्हारे जैसा बुद्धिजीवी नहीं। तुम्हारे पीछे लाल रंग वाले बुद्धिजीवियों की जमात है। खैर मैं वक्त जाया कर रहा हूं….फिर मुद्दे पर लौटता हूं।

कन्हैया अगर तुम साम्यवाद की बात करते हो…तो कश्मिरी पंडितो की बात भी करो….अगर तुम समाजवाद की बात करते हो…समाज के उस वर्ग की भी बात करो….ऊंची जाति के आर्थिक तौर पर कमज़ोर पक्ष की भी बात करो….

जिनकी प्रतिभा तुम्हारे बदलावाद का सिद्धांत पिछले करीब तीन दशकों से लील रहा है। उसकी भूख…उसके हक की भी बात करो…। लेकिन तुम छद्म साम्यवादी हो…साम्यवाद है क्या? साम्यवाद…प्रतिक्रियावाद है…बदलावाद है…। एक ऐसी अंधी विचारधारा है…जो गरीबों मज़लूमों की बात करते अचानक से हिटलर हो जाती है…फासीवादी हो जाती है….पाशविक हो जाती है…।

और हां तुम देश की अखंडता की बात तो मत ही करो…भारत-चीन युद्ध हो…या स्वतंत्रता संघर्ष उसमें तुम्हारी भूमिका क्या थी…ज़रा अपने लाल विचारकों से पूछो। तुम बरगलाए गए हो…तुम बरगला रहे हो…तुम शातिरपने से एक आतंकी की पैरोकारी करते हो…और तुम विद्यार्थी हो…? लोकतंत्र के हिमायती हो….? ओ कम ऑन यार स्टॉप स्पीकिंग ब्लफ़।

(टीवी एंकर राकेश पाठक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार है)

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