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मोदी के लिए मौका…

राकेश अग्निहोत्री | सवाल दर सवाल
5 राज्यों के विधानसभा चुनाव में असम में पहली बार सरकार बनाने के साथ पीएम नरेंद्र मोदी और मजबूत होकर उभरे हैं…ये कहना गलत नहीं होगा कि मोदी के नेतृत्व में बीजेपी अब दिल्ली और बाद में बिहार में मिली हार से न सिर्फ उभर चुकी है बल्कि राजनीति में अपने सबसे बड़े विरोधी दल कांग्रेस से राज्यों से भी मुक्त करने की ओर दो कदम आगे बढ़ चुकी है…फिर भी सवाल खड़ा होना लाजमी है कि मोदी के मजबूत होने के साथ उन्हें जो मौका मिला उसे वो किस तरह भुनाएंगे…सवाल ये भी खड़ा होता है कि सत्ता और संगठन में फेरबदल की अटकलों के बीच जो तस्वीर सामने आएगी क्या उसमें संघ का दखल देखने को मिलेगा…या फिर संघ िपछलग्गू बनकर रह जाएगा…

बीजेपी को जहां जीत हासिल हो रही है वहां वह कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखने में कामयाब हो रही है…लेकिन गैर कांग्रेस-गैर बीजेपी यानी क्षेत्रीय दलों के वर्चस्व को वो चुनौती देने में नाकाम रही है…ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु के बाद जब मुकाबला यूपी में होगा तो वहां सपा और बसपा के मुकाबले बीजेपी खुद को कहां खड़ा पाएगी, क्योंकि कांग्रेस वहां पहले ही सत्ता से दूर है…मोदी सरकार के 2 साल पूरा होने से पहले बीजेपी को कोई इससे बड़े तोहफे की उम्मीद रही भी नहीं होगी जो उसने असम में सरकार बनाकर पूर्वोत्तर में अपनी प्रभावी मौजूदगी दर्ज कराकर ये संदेश दे दिया है कि कमल अब कभी भी कहीं भी खिल सकता है… जम्मू कश्मीर में शामिल होने से बीजेपी की भले ही किरकिरी हुई लेकिन दूरगामी रणनीति के तहत उसने एक बड़ा लक्ष्य जो हासिल किया था उसमें असम ने इजाफा ही किया है… जहां कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर उसको बैकफुट पर धकेलने में वो सफल रही… क्योंकि केरल में भी कांग्रेस सत्ता में नहीं लौट पाई वह बात और है कि वहां सीधे मुकाबले में वाम दलों की जीत हुई… उधर राज्यों की राजनीति में महिला नेतृत्व की सरकार में वापसी जयललिता और ममता बनर्जी के तौर पर जिस तरह हुई उसने कांग्रेस की गठबंधन की राजनीति की भी चूलें हिलाकर रख दी हैं… यहां बीजेपी भले ही कोई बड़ा फैक्टर साबित नहीं हुआ लेकिन वो कांग्रेस के कमजोर और अलग-थलग साबित होने को भी भुनाने की स्थिति में जरूर पहुंच गई है… पुडुचेरी में कांग्रेस को मिली जीत को अगर अपवाद माना जाए तो बाकी 4 राज्यों में उसका खराब प्रदर्शन सोनिया-राहुल के लिए किसी बड़ी चिंता से कम नहीं होगा… कुल मिलाकर असम में जीत के साथ केरल में अपना खाता खोलने वाली बीजेपी का यदि पश्चिम बंगाल में कमल खिला है तो इससे मोदी और शाह की जोड़ी का मजबूत होकर उभरना तय है… यहीं पर जो कुछ नए सवाल खड़े होते हैं उसमें बीजेपी का बढ़ता और कांग्रेस का गिरता ग्राफ राष्ट्रीय राजनीति में बहस का मुद्दा बनना तय है… ऐसे में बड़ा सवाल ये खड़ा होता है कि मोदी और शाह की जुगलबंदी के बीच बीजेपी की आखिर दिशा क्या होगी… उसकी सबसे बड़ी चिंता यूपी और पंजाब चुनाव हैं जिसके लिए नई जमावट का मानो समय नजदीक आ चुका है… सवाल ये भी खड़ा होता है कि क्या ये सिर्फ कांग्रेस को और कमजोर और वामदलों को अलग-थलग साबित करने का एक मौका है या फिर ये मौका कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़कर सरकार में वापसी के साथ पश्चिम बंगाल में और मजबूत होकर उभरी ममता बनर्जी और तमिलनाडु में जयललिता से सिर्फ बेहतर संबंध स्थापित करना ही नहीं बल्कि उन्हें एनडीए के गठबंधन में मजबूर करने का भी मौका है या फिर कांग्रेस से दूरी बनाकर चल रही इन दो नेत्रियों को विरोधी पाले में रखकर उनके बढ़ते सियासी कद से कांग्रेस की सोनिया राहुल ही नहीं बल्कि मोदी को सीधी चुनौती देने में जुटे नीतीश कुमार और अरविन्द केजरीवाल की स्वीकार्यता पर इनके जरिए सवाल खड़ा करवाकर दूरगामी रणनीति बनाना होगी जिसमें यूपी में सत्ता की सबसे बड़ी दावेदारी माने जानी वाली मायावती के चुनाव जीतने पर दिल्ली की ओर बढ़ते कदम का गणित भी गड़बड़ा देना होगा… यानी मोदी के सक्षम और स्वीकार्य नेतृत्व के खिलाफ विरोधियों द्वारा किसी एक नेता को 2019 में नहीं उभरने देना और पीएम इन वेटिंग के इन तमाम दावेदारों की महत्वाकांक्षाओं को शांत रखना होगी… चुनाव में पुडुचेरी तक सिमटकर रह गई कांग्रेस जो पंजाब में चुनाव जीतने का सपना दे रही है, के अंदर सोनिया-राहुल को अलग थलग पड़ने की रणनीति पर आगे बढ़ने के लिए क्या बीजेपी मौके को और असरदार तरीके से भुनाएगी… बीजेपी के लिए ये जीत या कांग्रेस को मिली करारी हार उत्तराखंड को लेकर किरकिरी से बाहर निकालने में भी सहायक होगी… बड़ा सवाल ये है कि असम में नेता घोषित कर उसने िजस तरह जीत हासिल की है और बिहार में नेता नहीं घोषित करने का वो खामियाजा भुगत चुकी है तो इससे वो सीख लेकर खासतौर से यूपी में बीजेपी सीएम इन वेटिंग की घोषणा करने का जोखिम मोल लेगी या फिर जीत का श्रेय मोदी को देने के साथ वो उनके ही नेतृत्व में यूपी चुनाव में जाएगी… सवाल ये भी खड़ा होता है िक नरेंद्र मोदी से बिहार चुनाव के बाद सत्ता और संगठन में जिस बड़े ऑपरेशन की उम्मीद की जा रही थी क्या उसका समय अब आ चुका है… यूपी और पंजाब चुनाव की आड़ और दो साल सरकार के पूरे होने पर मंत्रियों के प्रदर्शन को आधार बनाकर जो जल्द ही सरकार और संगठन में भी क्या फेरबदल करेंगे… इस फेरबदल में क्या बीजेपी शासित राज्यों के सीएम भी प्रभावित होंगे िजस गणित को गोवा के सीएम रहते मनोहर पारिकर को केंद्रीय राजनीति में लाकर एक नई हवा दी गई थी… यहां बड़ा सवाल ये खड़ा होता है कि मोदी भले ही चुनाव जिताने का माद्दा रखते हों लेकिन क्या वो राजस्थान में वसुंधरा, छत्तीसगढ़ में रमन और मध्यप्रदेश में शिवराज को छेड़ने की जरूरत महसूस करेंगे जिनके चेहरे को आगे रखकर बीजेपी ने इन राज्यों में सरकार बनाई थी… लेिकन बदलाव की सुगबुगाहट को कुछ दिन पहले ही तब और हवा मिली थी जब गुजरात की सीएम आनंदी पटेल के विकल्प के तौर पर पटेल समुदाय के ही एक मंत्री का नाम आया था और बाद में आनंदी बाई ने नेतृत्व पर ही विराम लगा दिया था… गुजरात में मोदी-शाह के मर्जी के बिना नेतृत्व परिवर्तन की बात बेमानी है तो फिर सवाल ये खड़ा होता है कि क्या आनंदी पटेल को हटाए जाने की आड़ में दूसरे सीएम को ये संदेश दे दिया गया था कि पारिकर की तर्ज पर कोई क्राइटेरिया बनाया गया तो फिर बीजेपी शासित राज्यों की राजनीति भी प्रभावित होगी जो मोदी के पीएम बनने के पहले ही अपने दम पर सरकार बनाने का दावा ठोकते रहे हैं… सवाल ये भी खड़ा होता है कि जब केंद्र की सत्ता और संगठन के साथ मप्र में कैबिनेट का विस्तार शिवराज घोषणा के बाद भी नहीं कर पाए और नंदूभैया की टीम भी अटकी है तब इस एजेंडे को पूरा करने में संघ आखिर किस हद तक दिलचस्पी लेता है…

सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या संगठन में संजय जोशी जैसे नेताओं की वापसी होगी… मोदी और शाह की मजबूत होती कैमिस्ट्री ने जिस तरह पार्टी को अपने कब्जे मेें िलया है उसके बाद मार्गदर्शक मंडल से जुड़े नेता यदि मौन साध गए हैं तो क्या ये मान लिया जाए कि संघ अब अपनी सोच को मोदी पर थोप नहीं सकता औऱ उससेपीछे खड़े होकर 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए चलते रहना होगा…

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