भोपाल गैस कांड के 30 साल : 25000 मौतें, सज़ा 35 मिनट प्रति मौत
भोपाल। 2 दिसंबर 1984 के उस हादसे का अभिशाप आज भी भोपाल झेल रहा है। जिन लोगों ने गैस त्रासदी का सामना किया था, सिर्फ वे ही नहीं नई पीढ़ी भी अब तक उस दंश का शिकार हो रही है। शहर के कुछ रिहेबलिटेशन सेंटर में आज भी सैकड़ों बच्चे ऐसे हैं जो मानसिक और शारीरिक विकलांगता झेल रहे हैं।
सैकड़ों बच्चों का जन्म उस वक्त हुआ था, जब भोपाल गैस-त्रासदी के आंसू रो रहा था। ऐसे ही सैकड़ों मानसिक और शारीरिक तौर पर बीमार मासूम बच्चे भोपाल मेडिकल पुनर्वास केंद्र में उस भयावह त्रासदी की यंत्रणा झेल रहे हैं। हम कैलेंडर बदलते गए, लेकिन उस दर्द का अहसास खत्म न कर सके। गैस हादसे की वजह से आज भी फैक्ट्री के आस-पास रह रहे सैकड़ों-हजारों लोग दूषित पानी पीने को मजबूर है। जहरीली हवा में सांस लेने के अवाला इनके पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है। सैकड़ों बच्चे आज भी जन्मजात बीमारी के साथ इस दुनिया में आ रहे हैं, जिनके इलाज का खर्च उठा पाना उनके परिवार के लिए मुश्किल है।
उस हादसे के बाद सैकड़ों बच्चों का जन्म मानसिक और शारीरिक विकलांगता के साथ हुआ। उन्हीं में से एक बच्चा जो कि भोपाल मेडिकल द्वारा संचालित पुनर्वास केंद्र की खिड़की से बाहर देख रहा है।
पढ़ें क्या हुआ था उस रात?
इस प्लांट से 42 टन घातक मिथाइल आइसो सायनेट (एमआईसी) का रिसाव हुआ था, जिससे शहर के 6,00,000 लोग इसकी चपेट में आ गए। रिपोर्ट के मुताबिक, टैंक में क्षमता से अधिक प्रेशर बढ़ गया था
रात 9:00 बजे - आधा दर्जन कर्मचारी भूमिगत टैंक के पास पानी से पाइप लाइन की सफाई का काम कर रहे थे।
10:00 बजे - भूमिगत टैंक नंबर 610 में पानी पहुंचने से रासायनिक प्रतिक्रिया शुरू हुई। टैंकर का तापमान 200 डिग्री तक पहुंच गया और गैस बनने लगी।
10:30 बजे - टैंक से गैस पाइप में पहुंची। वॉल्व ठीक से बंद नहीं होने के कारण गैस रिसाव शुरू हो गया।
देर रात 12:50 बजे - कारखाने में मौजूद कर्मचारी घबरा गए। वॉल्व को बंद करने की कोशिश की गई। खतरे का सायरन बजना शुरू हो गया।
02:00 बजे - सबसे पहला गैस पीड़ित व्यक्ति हमीदिया अस्पताल पहुंचा। उसके मुंह से झाग आने लगा। कुछ ही देर में अस्पताल परिसर में मरीजों की भीड़ उमड़ पड़ी।
02:10 बजे - सायरन की आवाज सुनते ही लोग समझ गए की कोई बड़ा हादसा हुआ है। कारखाने के आसपास रहने वाले लोगों को आंखों में जलन और खांसी होना शुरू हो गई।
सुबह 04:00 बजे - पूरे शहर में गैस फैल चुकी थी। गहरी नींद में सोए हजारों लोग जहरीली गैस के मरीज बन चुके थे। इस बीच लगातार कोशिश के बाद रिसाव पर काबू पा लिया गया।
06:00 बजे - पुलिस की गाड़ियों में लगे लाउड स्पीकर से कहा जा रहा था- सब कुछ सामान्य है। लेकिन तब तक सैकड़ों या तो दम तोड़ चुके थे या जान बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे।
लाशों के पट गई थी भोपाल की सड़कें
02 दिसंबर 1984 का काला इतिहास शायद कोई भूल ना सकेगा। आधी रात जब लोग गहरी नींद में सो रहे थे अचानक उनका दम घुटना शुरू हो गया। कुछ पल में ही भोपाल की सड़कें, गलियां, घर लाशों से पट पड़े थे। यहां के सबसे बड़े अस्पताल में घायल और लाश में अंतर करना मुश्किल हो रहा था। आनन-फानन में पोस्टमार्टम हो रहे थे और लाशों को ले जाने के लिए ट्रक भी खड़े हो गए। अगली सुबह एक साथ हजारों लोगों की अर्थियां निकली और अंतिम संस्कार हुआ।
उस घटना ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया
02 दिसंबर 1984 को विश्व की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी भोपाल गैसकांड की घटना हुई थी। इस घटना ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया था। देखते ही देखते हजारों लोग मौत की आगोश में चले गए थे। जो बचे वो संक्रमण से इस कदर प्रभावित हुए कि उन्हें विकलांग की जिंदगी बितानी पड़ी। उस भयावह हादसे के घटनाक्रम को फिर से याद करने पर भुक्तभोगियों की आंखें डबडबा जाती हैं। हम उसी रात के दृश्य को बताने की कोशिश कर रहे हैं। 02 दिसंबर की आधी रात इस फैक्ट्री से मिथाइल आइसो साइनेट (एमआईसी) का रिसाव हुआ और हजारों जिंदगी काल की गाल में समा गई।
और मारा गया हजारों की मौत का जिम्मेदार...
अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड के प्रमुख रहे और भोपाल गैस त्रासदी मामले में भगोड़ा करार दिए जा चुके वारेन एंडरसन की मौत हो चुकी है। एंडरसन की मौत 29 सितंबर को ही हो गई थी। लेकिन, उसकी मौत की खबर 30 अक्टूबर को सामने आई है। 1984 में 2-3 दिसंबर की दरमयानी रात में भोपाल में यूनियन कार्बाइड के प्लांट से गैस रिसने से करीब चार हजार लोगों की मौत हुई थी और लाखों लोग प्रभावित हुए थे। इनके परिजनों को आज भी इंसाफ का इंतजार है। लेकिन, एंडरसन की मौत के साथ ही इंसाफ की उम्मीद भी खत्म हो गई।
एंडरसन से जुड़ी टाइमलाइन
4 दिसंबर 1984- वॉरेन एंडरसन समेत नौ लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि, लौटने की शर्त पर एंडरसन को 2,000 डॉलर के जमानत पर रिहा कर दिया गया।
फरवरी 1985- अमेरिकी कोर्ट में भारत सरकार ने यूनियन कार्बाइड के खिलाफ 3.3 बिलियन डॉलर का दावा ठोका।
1986- अमेरिका के डिस्ट्रिक्ट कोर्ट जज ने भोपाल के सारे मुकदमे भारत को सौंप दिया।
दिसंबर 1987- एंडरसन समेत अन्य आरोपी के खिलाफ सीबीआई ने चार्जशीट दायर की।
फरवरी 1989- एंडरसन द्वारा बार-बार समन की अनदेखी किए जाने के बाद भोपाल के चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट ने उसके खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी किया।
फरवरी 1989- भारत सरकार और यूनियन कार्बाइड के बीच क्षतिपूर्ति को लेकर डील हुई। जिसके तहत यूनियन कार्बाइड को 470 मिलियन डॉलर देना तय हुआ।
फरवरी 1992- कोर्ट द्वारा भेजे गए समन की बार-बार अनदेखी के बाद एंडरसन को भगोड़ा साबित कर दिया गया।
नवंबर 1999- कई संगठनों व पीड़ितों ने एंडरसन के खिलाफ न्यूयॉर्क के संघीय कोर्ट में अंतरराष्ट्रीय अपराध, अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार उल्लंघन का केस दर्ज कराया।
मई 2003- भारत ने अमेरिका से औपचारिक तौर पर एंडरसन के प्रत्यर्पण का अनुरोध किया।
हमीदिया अस्पताल लाए गए थे शव
मेडिको लीगल इंस्टीट्यूट के संचालक (निदेशक) पद से सेवानिवृत्त हुए डॉ. डी.के. सत्पथी उन चिकित्सकों में से एक थे जो भोपाल में यूनियन कार्बाइड संयंत्र हादसे के समय सेवारत थे। उन्होंने लगातार कई दिनों तक हमीदिया अस्पताल में रहकर मृतकों का पोस्टमार्टम किया था। भोपाल में दो-तीन दिसंबर 1984 की दरम्यानी रात को यूनियन कार्बाइड संयंत्र से जहरीली गैस रिसी। उसके बाद कुछ लोगों को हमीदिया अस्पताल लाया गया। डॉ. सत्पथी ने बताया था कि, "रात की ड्यूटी पर तैनात चिकित्सक डॉ. दीपक गंधे ने यूनियन कार्बाइड के चिकित्सक डॉ. एल.डी. लोथा से संपर्क कर पूछा कि आखिर क्या हुआ है, इस पर लोथा का कहना था कि आंसूगैस छोड़ा गया, उसी का असर है। आंखों में पानी डालने से सभी ठीक हो जाएंगे।"
पहले दिन 850 पोस्टमार्टम
डॉ. सत्पथी ने बताया था कि "कुछ ही देर में अस्पताल परिसर में लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा और कई शव भी आने लगे। देखते ही देखते अस्पताल परिसर में शवों का ढेर लग गया। उसके बाद वह अपने अन्य तीन सहयोगियों के साथ शवों के पोस्टमार्टम में जुट गए। पहले दिन यानी तीन दिसंबर को साढ़े आठ सौ शवों का पोस्टमार्टम किया गया और सात दिन में लगभग 1500 शवों के पोस्टमार्टम हुए।" "जो भी गैस की जद में आया उसे नुकसान जरूर हुआ। वे बच्चे भी गैस के असर से नहीं बच पाए जो मां के गर्भ में थे। यही वजह है कि जहरीली गैस पीड़ित महिलाओं के बच्चे विकृत अंग लेकर पैदा हुए।"
डॉ. सत्पथी अपने अनुभव के आधार पर बताते हैं कि मार्च 1985 तक जितने भी गैस पीड़ितों के शवों का उन्होंने पोस्टमार्टम किया है, उनके अंगों में जहर पाया गया था। उसके बाद के शवों में जहर के असर के चलते अंग विकृत पाए गए, मसलन फेफड़े, लिवर आदि का सड़ जाना। उन्होंने कहा, "सेवा में रहते हुए 1984 से 2009 तक मैंने 15 हजार से ज्यादा गैस पीड़ितों के शवों का पोस्टमार्टम किया।"
अब तक जारी है रिसर्च
भोपाल में संयंत्र से रिसी गैस को मिथाइल आइसो साइनाइड (मिक) बताया जाता है, मगर डॉ. सत्पथी इससे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि जिस गैस ने लोगों की जान ली या नुकसान पहुंचाया, उसमें सिर्फ मिक नहीं थी कुछ और भी थी। जहरीली गैस का लोगों पर किस तरह का असर हुआ, इस पर शोध तो हुए, मगर कोई शोध पूरा नहीं हुआ। उन्होंने कहा, "वर्ष 1985 से 94 तक 25 शोध हुए मगर कोई भी शोध पूरा नहीं हो पाया है।"
गैस पीड़ितों के बीच लंबे समय तक काम करने वाले डॉ. सत्पथी बताते हैं कि हादसे की वजह सुरक्षा में चूक रही है। उन्होंने कहा, "दरआसल, यूनियन कार्बाइड कंपनी को उतना मुनाफा नहीं हो रहा था जितना वह चाहती थी। लिहाजा, 1980 में उसने इसे बंद करने का मन बना लिया था। प्रबंधन ने कर्मचारियों की छंटनी शुरू कर दी और सुरक्षा पर ध्यान देना भी बंद कर दिया और एक रात इसका खामियाजा हजारों बेकसूरों को भुगतना पड़ा।"
हर वर्ग ने आगे आकर की थी लोगों की मदद
डॉ. सत्पथी बताते हैं कि हादसे के बाद सात दिन तक भोपाल के हर वर्ग से जुड़े लोगों ने पीड़ितों की मदद में कोई कसर नहीं छोड़ी। होटलों और ढाबा मालिकों ने खाना मुफ्त में बांटना शुरू किया। दवा दुकानदार गैस पीड़ितों को मुफ्त दवाइयां दे रहे थे और कई लोग तो मृतकों के तन को ढकने के लिए कफन का इंतजाम तक कर रहे थे। हादसे की वजह और गैस के दुष्प्रभावों को जनने के लिए डॉ. सत्पथी ने सरकार को बहुत छोटे रूप में डेमो यानी घटना को दोहराना की सलाह दी थी। उनका कहना है कि अगर डेमो किया जाता तो स्थिति साफ हो जाती। पता चलता कि मिक के रिसने के बाद किस तरह के तत्वों में प्रतिक्रिया (रिएक्शन) हुई, उससे कौन-कौन से यौगिक तैयार हुए और उस यौगिक का लोगों के शरीर पर किस तरह का असर हुआ होगा।
गैस पीड़ितों के अस्पताल में डॉक्टर नहीं
गैस पीड़ितों के लिए उपलब्ध चिकित्सा सुविधा को डॉ. सत्पथी भी नाकाफी मानते हैं। उनका कहना है कि गैस पीड़ितों के लिए अस्पताल है, मगर वहां अनुभवी चिकित्सकों का अभाव है। उन्होंने कहा, "विडंबना यह है कि जो लोग निजी क्लीनिक खोलकर उपचार कर रहे हैं, उन्हें इस बात की समझ नहीं है कि गैस पीड़ितों को क्या दवा देनी चाहिए। उनका धंधा इसलिए चल रहा है, क्योंकि ज्यादातर गैस पीड़ित गरीब तबके के और ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं।"
सैकड़ों बच्चों का जन्म उस वक्त हुआ था, जब भोपाल गैस-त्रासदी के आंसू रो रहा था। ऐसे ही सैकड़ों मानसिक और शारीरिक तौर पर बीमार मासूम बच्चे भोपाल मेडिकल पुनर्वास केंद्र में उस भयावह त्रासदी की यंत्रणा झेल रहे हैं। हम कैलेंडर बदलते गए, लेकिन उस दर्द का अहसास खत्म न कर सके। गैस हादसे की वजह से आज भी फैक्ट्री के आस-पास रह रहे सैकड़ों-हजारों लोग दूषित पानी पीने को मजबूर है। जहरीली हवा में सांस लेने के अवाला इनके पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है। सैकड़ों बच्चे आज भी जन्मजात बीमारी के साथ इस दुनिया में आ रहे हैं, जिनके इलाज का खर्च उठा पाना उनके परिवार के लिए मुश्किल है।
उस हादसे के बाद सैकड़ों बच्चों का जन्म मानसिक और शारीरिक विकलांगता के साथ हुआ। उन्हीं में से एक बच्चा जो कि भोपाल मेडिकल द्वारा संचालित पुनर्वास केंद्र की खिड़की से बाहर देख रहा है।
पढ़ें क्या हुआ था उस रात?
इस प्लांट से 42 टन घातक मिथाइल आइसो सायनेट (एमआईसी) का रिसाव हुआ था, जिससे शहर के 6,00,000 लोग इसकी चपेट में आ गए। रिपोर्ट के मुताबिक, टैंक में क्षमता से अधिक प्रेशर बढ़ गया था
रात 9:00 बजे - आधा दर्जन कर्मचारी भूमिगत टैंक के पास पानी से पाइप लाइन की सफाई का काम कर रहे थे।
10:00 बजे - भूमिगत टैंक नंबर 610 में पानी पहुंचने से रासायनिक प्रतिक्रिया शुरू हुई। टैंकर का तापमान 200 डिग्री तक पहुंच गया और गैस बनने लगी।
10:30 बजे - टैंक से गैस पाइप में पहुंची। वॉल्व ठीक से बंद नहीं होने के कारण गैस रिसाव शुरू हो गया।
देर रात 12:50 बजे - कारखाने में मौजूद कर्मचारी घबरा गए। वॉल्व को बंद करने की कोशिश की गई। खतरे का सायरन बजना शुरू हो गया।
02:00 बजे - सबसे पहला गैस पीड़ित व्यक्ति हमीदिया अस्पताल पहुंचा। उसके मुंह से झाग आने लगा। कुछ ही देर में अस्पताल परिसर में मरीजों की भीड़ उमड़ पड़ी।
02:10 बजे - सायरन की आवाज सुनते ही लोग समझ गए की कोई बड़ा हादसा हुआ है। कारखाने के आसपास रहने वाले लोगों को आंखों में जलन और खांसी होना शुरू हो गई।
सुबह 04:00 बजे - पूरे शहर में गैस फैल चुकी थी। गहरी नींद में सोए हजारों लोग जहरीली गैस के मरीज बन चुके थे। इस बीच लगातार कोशिश के बाद रिसाव पर काबू पा लिया गया।
06:00 बजे - पुलिस की गाड़ियों में लगे लाउड स्पीकर से कहा जा रहा था- सब कुछ सामान्य है। लेकिन तब तक सैकड़ों या तो दम तोड़ चुके थे या जान बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे।
लाशों के पट गई थी भोपाल की सड़कें
02 दिसंबर 1984 का काला इतिहास शायद कोई भूल ना सकेगा। आधी रात जब लोग गहरी नींद में सो रहे थे अचानक उनका दम घुटना शुरू हो गया। कुछ पल में ही भोपाल की सड़कें, गलियां, घर लाशों से पट पड़े थे। यहां के सबसे बड़े अस्पताल में घायल और लाश में अंतर करना मुश्किल हो रहा था। आनन-फानन में पोस्टमार्टम हो रहे थे और लाशों को ले जाने के लिए ट्रक भी खड़े हो गए। अगली सुबह एक साथ हजारों लोगों की अर्थियां निकली और अंतिम संस्कार हुआ।
उस घटना ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया
02 दिसंबर 1984 को विश्व की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी भोपाल गैसकांड की घटना हुई थी। इस घटना ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया था। देखते ही देखते हजारों लोग मौत की आगोश में चले गए थे। जो बचे वो संक्रमण से इस कदर प्रभावित हुए कि उन्हें विकलांग की जिंदगी बितानी पड़ी। उस भयावह हादसे के घटनाक्रम को फिर से याद करने पर भुक्तभोगियों की आंखें डबडबा जाती हैं। हम उसी रात के दृश्य को बताने की कोशिश कर रहे हैं। 02 दिसंबर की आधी रात इस फैक्ट्री से मिथाइल आइसो साइनेट (एमआईसी) का रिसाव हुआ और हजारों जिंदगी काल की गाल में समा गई।
और मारा गया हजारों की मौत का जिम्मेदार...
अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड के प्रमुख रहे और भोपाल गैस त्रासदी मामले में भगोड़ा करार दिए जा चुके वारेन एंडरसन की मौत हो चुकी है। एंडरसन की मौत 29 सितंबर को ही हो गई थी। लेकिन, उसकी मौत की खबर 30 अक्टूबर को सामने आई है। 1984 में 2-3 दिसंबर की दरमयानी रात में भोपाल में यूनियन कार्बाइड के प्लांट से गैस रिसने से करीब चार हजार लोगों की मौत हुई थी और लाखों लोग प्रभावित हुए थे। इनके परिजनों को आज भी इंसाफ का इंतजार है। लेकिन, एंडरसन की मौत के साथ ही इंसाफ की उम्मीद भी खत्म हो गई।
एंडरसन से जुड़ी टाइमलाइन
4 दिसंबर 1984- वॉरेन एंडरसन समेत नौ लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि, लौटने की शर्त पर एंडरसन को 2,000 डॉलर के जमानत पर रिहा कर दिया गया।
फरवरी 1985- अमेरिकी कोर्ट में भारत सरकार ने यूनियन कार्बाइड के खिलाफ 3.3 बिलियन डॉलर का दावा ठोका।
1986- अमेरिका के डिस्ट्रिक्ट कोर्ट जज ने भोपाल के सारे मुकदमे भारत को सौंप दिया।
दिसंबर 1987- एंडरसन समेत अन्य आरोपी के खिलाफ सीबीआई ने चार्जशीट दायर की।
फरवरी 1989- एंडरसन द्वारा बार-बार समन की अनदेखी किए जाने के बाद भोपाल के चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट ने उसके खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी किया।
फरवरी 1989- भारत सरकार और यूनियन कार्बाइड के बीच क्षतिपूर्ति को लेकर डील हुई। जिसके तहत यूनियन कार्बाइड को 470 मिलियन डॉलर देना तय हुआ।
फरवरी 1992- कोर्ट द्वारा भेजे गए समन की बार-बार अनदेखी के बाद एंडरसन को भगोड़ा साबित कर दिया गया।
नवंबर 1999- कई संगठनों व पीड़ितों ने एंडरसन के खिलाफ न्यूयॉर्क के संघीय कोर्ट में अंतरराष्ट्रीय अपराध, अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार उल्लंघन का केस दर्ज कराया।
मई 2003- भारत ने अमेरिका से औपचारिक तौर पर एंडरसन के प्रत्यर्पण का अनुरोध किया।
हमीदिया अस्पताल लाए गए थे शव
मेडिको लीगल इंस्टीट्यूट के संचालक (निदेशक) पद से सेवानिवृत्त हुए डॉ. डी.के. सत्पथी उन चिकित्सकों में से एक थे जो भोपाल में यूनियन कार्बाइड संयंत्र हादसे के समय सेवारत थे। उन्होंने लगातार कई दिनों तक हमीदिया अस्पताल में रहकर मृतकों का पोस्टमार्टम किया था। भोपाल में दो-तीन दिसंबर 1984 की दरम्यानी रात को यूनियन कार्बाइड संयंत्र से जहरीली गैस रिसी। उसके बाद कुछ लोगों को हमीदिया अस्पताल लाया गया। डॉ. सत्पथी ने बताया था कि, "रात की ड्यूटी पर तैनात चिकित्सक डॉ. दीपक गंधे ने यूनियन कार्बाइड के चिकित्सक डॉ. एल.डी. लोथा से संपर्क कर पूछा कि आखिर क्या हुआ है, इस पर लोथा का कहना था कि आंसूगैस छोड़ा गया, उसी का असर है। आंखों में पानी डालने से सभी ठीक हो जाएंगे।"
पहले दिन 850 पोस्टमार्टम
डॉ. सत्पथी ने बताया था कि "कुछ ही देर में अस्पताल परिसर में लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा और कई शव भी आने लगे। देखते ही देखते अस्पताल परिसर में शवों का ढेर लग गया। उसके बाद वह अपने अन्य तीन सहयोगियों के साथ शवों के पोस्टमार्टम में जुट गए। पहले दिन यानी तीन दिसंबर को साढ़े आठ सौ शवों का पोस्टमार्टम किया गया और सात दिन में लगभग 1500 शवों के पोस्टमार्टम हुए।" "जो भी गैस की जद में आया उसे नुकसान जरूर हुआ। वे बच्चे भी गैस के असर से नहीं बच पाए जो मां के गर्भ में थे। यही वजह है कि जहरीली गैस पीड़ित महिलाओं के बच्चे विकृत अंग लेकर पैदा हुए।"
डॉ. सत्पथी अपने अनुभव के आधार पर बताते हैं कि मार्च 1985 तक जितने भी गैस पीड़ितों के शवों का उन्होंने पोस्टमार्टम किया है, उनके अंगों में जहर पाया गया था। उसके बाद के शवों में जहर के असर के चलते अंग विकृत पाए गए, मसलन फेफड़े, लिवर आदि का सड़ जाना। उन्होंने कहा, "सेवा में रहते हुए 1984 से 2009 तक मैंने 15 हजार से ज्यादा गैस पीड़ितों के शवों का पोस्टमार्टम किया।"
अब तक जारी है रिसर्च
भोपाल में संयंत्र से रिसी गैस को मिथाइल आइसो साइनाइड (मिक) बताया जाता है, मगर डॉ. सत्पथी इससे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि जिस गैस ने लोगों की जान ली या नुकसान पहुंचाया, उसमें सिर्फ मिक नहीं थी कुछ और भी थी। जहरीली गैस का लोगों पर किस तरह का असर हुआ, इस पर शोध तो हुए, मगर कोई शोध पूरा नहीं हुआ। उन्होंने कहा, "वर्ष 1985 से 94 तक 25 शोध हुए मगर कोई भी शोध पूरा नहीं हो पाया है।"
गैस पीड़ितों के बीच लंबे समय तक काम करने वाले डॉ. सत्पथी बताते हैं कि हादसे की वजह सुरक्षा में चूक रही है। उन्होंने कहा, "दरआसल, यूनियन कार्बाइड कंपनी को उतना मुनाफा नहीं हो रहा था जितना वह चाहती थी। लिहाजा, 1980 में उसने इसे बंद करने का मन बना लिया था। प्रबंधन ने कर्मचारियों की छंटनी शुरू कर दी और सुरक्षा पर ध्यान देना भी बंद कर दिया और एक रात इसका खामियाजा हजारों बेकसूरों को भुगतना पड़ा।"
हर वर्ग ने आगे आकर की थी लोगों की मदद
डॉ. सत्पथी बताते हैं कि हादसे के बाद सात दिन तक भोपाल के हर वर्ग से जुड़े लोगों ने पीड़ितों की मदद में कोई कसर नहीं छोड़ी। होटलों और ढाबा मालिकों ने खाना मुफ्त में बांटना शुरू किया। दवा दुकानदार गैस पीड़ितों को मुफ्त दवाइयां दे रहे थे और कई लोग तो मृतकों के तन को ढकने के लिए कफन का इंतजाम तक कर रहे थे। हादसे की वजह और गैस के दुष्प्रभावों को जनने के लिए डॉ. सत्पथी ने सरकार को बहुत छोटे रूप में डेमो यानी घटना को दोहराना की सलाह दी थी। उनका कहना है कि अगर डेमो किया जाता तो स्थिति साफ हो जाती। पता चलता कि मिक के रिसने के बाद किस तरह के तत्वों में प्रतिक्रिया (रिएक्शन) हुई, उससे कौन-कौन से यौगिक तैयार हुए और उस यौगिक का लोगों के शरीर पर किस तरह का असर हुआ होगा।
गैस पीड़ितों के अस्पताल में डॉक्टर नहीं
गैस पीड़ितों के लिए उपलब्ध चिकित्सा सुविधा को डॉ. सत्पथी भी नाकाफी मानते हैं। उनका कहना है कि गैस पीड़ितों के लिए अस्पताल है, मगर वहां अनुभवी चिकित्सकों का अभाव है। उन्होंने कहा, "विडंबना यह है कि जो लोग निजी क्लीनिक खोलकर उपचार कर रहे हैं, उन्हें इस बात की समझ नहीं है कि गैस पीड़ितों को क्या दवा देनी चाहिए। उनका धंधा इसलिए चल रहा है, क्योंकि ज्यादातर गैस पीड़ित गरीब तबके के और ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं।"

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