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कुल्लू दशहरे की पारंपरिक शुरूआत...

दिल्ली: कुल्लू के दशहरे में रावण नहीं जलाया जाता । न ही वहां रामलीला होती है । मां दुर्गा की प्रतिमा की स्थापना भी नहीं की जाती । वहां तो दशहरे की शुरुआत उस राम के नाम के साथ होती है जो यहां सोलहवीं सदी में लाये गये थे । वैसे देश भर में तो दुर्गा पूजा का समापन दशहरे को होता है, लेकिन हिमाचल के कुल्लू में दशहरे की शुरूआत इसी दिन से होती है। कुल्लू दशहरे में भगवान रघुनाथ की रथ यात्रा निकाली जाती है जिसमें घाटी के करीब करीब सभी देवता शामिल होते हैं। 

गुरूवार को शुरु हुई रघुनाथ रथ यात्रा
गुरुवार को कुल्लू के दशहरे की शुरुआत भी कुछ अनोखे अंदाज़ में हुई। भगवान रघुनाथ की रथ यात्रा के पीछे पीछे चलने वाले देवता और उत्साह में झूमते रघुनाथ के भक्त, कुछ पल को लगा कि पूरी कुल्लू घाटी देवताओं के स्वर्ग से उतरने की साक्षी बन गई हो। हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल ने ढालपुर मैदान में दशहरे उत्सव की विधिवत शुरुआत की। इस मेले में देश विदेश से पर्यटक, देवताओं के दर्शन करने आते हैं। यही एक अवसर होता है जब सारे देवी देवता एक ही मैदान में इक्ट्ठे होते हैं। लेकिन रथ यात्रा तब तक संपूर्ण नहीं मानी जाती जब तक कि उसमें मां हिडिंबा शामिल न हों। मां हिडिंबा कुल्लू राजवंश की आराध्य देवी हैं और वो इसमें शामिल होने के लिये एक दिन पहले ही निकल पड़ती हैं। इस बार भी मां हिडिंबा ने, कुल्लू मेले के ठीक से संपन्न होने का आश्वासन दिया है। 28 अक्तूबर को लंका दहन के दिन लंकाबेकर में मां हिडिंबा को अष्टांग बलि देने के बाद दशहरा महोत्सव का समापन होगा, लेकिन इस बार हाईकोर्ट की ओर से पशु बलि देने पर प्रतिबंध लगाया गया है। 

कुल्लू दशहरे की अनोखी परंपरा
कुल्लू के घालपुर का मैदान, देवताओं के धरती पर उतरने का साक्षी बन गया है। पूरी घाटी के देवता, एक सप्ताह तक यहीं विराजेंगे। सुंदर पालकियों में सवार, नाचते गाते भक्त, जब अपने अपने देवताओं को लाकर स्थापित करते हैं तो नज़ारा देखने लायक होता है। ढोल, नगाड़ों और तुरही की आवाज़ से पूरी कुल्लू घाटी गूंज उठती है। लकड़ी की पालकी में सवार 3 इंच के रघुनाथ जी के दर्शन के लिये भक्तों का हुजूम उमड़ पड़ता है। पास ही में मनाली में विराजती हैं हिडिंबा देवी। उनका मंदिर इस मैदान से सिर्फ 45 किलोमीटर दूर है। जब वो मनाली से कुल्लू के प्रवेशद्वार पर पहुंचती हैं तो राजदंड से उसका स्वागत होता है और फिर राजसी ठाठ-बाट से मां हिडिंबा राजमहल में प्रवेश करती हैं। मां हिडिंबा के बुलावे पर राजघराने के सारे सदस्य उनसे आशीर्वाद लेने आते हैं। इसके बाद ही घालपुर में हिडिंबा का प्रवेश होता है। रथ में रघुनाथ जी की तीन इंच की प्रतिमा को उससे भी छोटी सीता तथा हिडिंबा को बड़ी सुंदरता से सजा कर रखा जाता है। पहाड़ी से माता भेखली का आदेश मिलते ही रथ यात्रा शुरू होती है। रस्सी की सहायता से रथ को इस जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है जहाँ यह रथ छह दिन तक ठहरता है। राज परिवार के सभी पुरुष सदस्य राजमहल से दशहरा मैदान की ओर धूम-धाम से रवाना हो जाते हैं।

रघुनाथ जी का देवताओं ने किया स्वागत
सुंदर लकडी के रथ में जब श्री रघुनाथ जी की सवारी मैदान में पहुंचती है तो सारे देवी देवता, गोल घेरे में खड़े होकर उनका स्वागत करते हैं। उन पर सुगंधित जल छिड़का जाता है। कुल्लू और शांगरी राजवंश के लोग प्राचीन परंपरा के अनुसार श्री रघुनाथ जी और अन्य देवी-देवताओं की बार-बार परिक्रमा करते हैं। कुल्लू के इस दशहरे को देखकर ऐसा लगता है जैसे सारे देवी देवता, स्वर्ग के द्वार खोलकर, धरती पर आनंद उत्सव मनाने आ गये हैं। इस मेले में आनंद उल्लास का स्वर और इसका रोमांच अपनी ऊंचाईयां छूने लगता है और घाटी में इक्ट्ठी भीड़ और भी घनी होने लगती है। इस दौरान मलाना के जामलू देवता भी आते हैं, लेकिन वो पास ही बहती ब्यास नदी के दूसरी ओर ही रहते हैं और सातों दिन का कार्यक्रम देखते हैं। यह स्थान घालपुर मैदान के ठीक सामने है। 

27 अक्टूबर को मोहल्ला उत्सव
उत्सव के छठे दिन सभी देवी-देवता इकट्ठे आ कर मिलते हैं जिसे 'मोहल्ला' कहते हैं। रघुनाथ जी के इस पड़ाव पर उनके आसपास अनगिनत रंगबिरंगी पालकियों का दृश्य बहुत ही अनूठा लेकिन लुभावना होता है। सारी रात लोगों का नाचगाना चलता है। सातवे दिन रथ को बियास नदी के किनारे ले जाया जाता है जहाँ कंटीले पेड़ को लंकादहन के रूप में जलाया जाता है। इसके बाद रथ वापस अपने स्थान पर लाया जाता है और रघुनाथ जी को रघुनाथपुर के मंदिर में पुर्नस्थापित किया जाता है। इस तरह विश्व विख्यात कुल्लू का दशहरा हर्षोल्लास के साथ संपूर्ण होता है।

कुल्लू दशहरे की 4 खास बातें
-कुल्लू दशहरे में भगवान रघुनाथ का जो रथ खींचा जाता है इसके लिये खास किस्म की घास से रस्सी तैयार की जाती है जिसे बागड़ कहते हैं।
-दूसरी खासियत ये है कि कुल्लू मेले में ट्रैफिक की व्यवस्था पुलिस नहीं बल्कि देवता धूमल नाग संभालते हैं। धूमल देवता हजारों की भीड़ में, रघुनाथजी के रथ के लिये रास्ता बनाते हुए आगे बढ़ते हैं।
-अगर आप ये सोच रहे हैं कि देवताओं का रथ, मनुष्य उठाते हैं तो आप शायद गलत  सोच रहे हैं । माना जाता है कि देवता अपना रथ जिस ओर मोड़ना चाहते हैं, उठाने वाले लोगों को वो उसी दिशा में मोड़ देते हैं। 
माना जाता है कि कंधे पर उठाया रथ भी दैवीय शक्ति से खुद ही हिलता डुलता है। इसे ही देव नृत्य माना जाता है।
-कुल्लू दशहरे में जो लोग शामिल होने आते हैं वो अपना सारा समय तपस्वी की तरह बिताते हैं। ये लोग ज़मीन पर सोते हैं। सात्विक भोजन करते हुए पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं।

पुराणों में कुल्लू
लोकगीतों में कुल्लू को कुलंतापीठ यानि रहने योग्य अंतिम स्थान के नाम से संबोधित किया जाता है। वास्तव में कुल्लू का प्राचीन नाम कुलता है, जिसका उल्लेख विष्णु पुराण और रामायण में मिलता है। महाभारत में उत्तर भारत के राज्यों की सूची में भी इसका नाम है। सातवीं सदी में चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने भी अपने यात्रा संस्मरण में क्यू-लू-तो नाम से इसका जिक्र किया है। 

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