डर के आगे निकलने के लिए जानें डर है क्या?
कहीं ऐसा न हो जाए? अगर ऐसा नहीं हुआ तो क्या होगा? आपकी जिंदगी के सारे डर इन ही सवालों के इर्द गिर्द घूमते रहते हैं। इन दोनों ही सवालों के मूल में है अपेक्षा। अभीष्ट की सिद्धि न हुई तो क्या होगा और अनिष्ट ने आ घेरा तो क्या होगा? डर कुछ भी हो सकता है। आपके करियर से जुड़ा हुआ, रिश्तों से जुड़ा हुआ, सेहत से जुड़ा हुआ, सुरक्षा से जुड़ा हुआ और जितने लोग उतनी कहानियां और उतने ही डर के अलग अलग कारण। कारण बेशक अलग हो सकते हैं लेकिन सबके मूल में सवाल यही है कि कहीं अनिष्ट न हो जाए? अनिष्ट यानि कुछ ऐसा जिसे हम बुरा मानते हैं। एक छोटा सा अभ्यास करें। आज आपके दिल में जो भी डर हैं या यूं कहें कि जिन बातों के होने से आपको डर लगता है उन्हें एक कागज पर लिख लें। अब जरा अपनी याददाश्त पर जोर डालें और पांच साल या दस साल पुराने अपने डर को याद करने की कोशिश करें। जरा मुश्किल होता है क्यूंकि डर की आयू बहुत छोटी होती है जैसे ही समय गुजरता है वो खत्म होता है लेकिन उसकी जगह आने वाले वक्त के कुछ नए डर ले लेते हैं। हम यदि किसी बात के नहीं होने से बार बार डरते हैं और वो हो जाती है तो ये डर इतने गहरे बैठ जाता है कि ऐसी किसी परिस्थिति के बारे में सोच सोच कर ही घबराहट होने लगती है। आप जब कुछ साल पहले के डर पर गौर करते हैं तो आप पाते हैं वो आज आपको नहीं डराता, हां ये हो सकता है कि उसके दोबारा होने का डर आपके मन में पहले से भी ज्यादा गहरे घर कर गया हो।
इस बात को एक उदाहरण के जरिए समझने की कोशिश करते हैं। अब जरा याद करिए उस समय को जब आप स्कूल या कॉलेज में थे। यदि आप स्कूल कॉलेज में हैं तो अपनी पुरानी परीक्षाओं के दौर को याद कीजिए। हर बार परीक्षा का डर मन में आता था और ईश्वर से प्रार्थना शुरू हो जाती थी बस इस बार मदद कर दो फिर सब ठीक हो जाएगा। आगे क्या होता है? कक्षाएं और परिक्षाएं बदलती रहती हैं लेकिन बस इस बार बेड़ा पार लगा दो कि प्रार्थना चलती रहती है। जो प्रार्थना को नहीं भी मानते वो अपने आत्मबल से भी यही गुहार लगाते हैं इस बार ताकत दो। यानि भय परिस्थितियों में छिपा होता है बल्कि और स्पष्ट तौर पर कहा जाए तो अनजान परिस्थितियों में छिपा होता है। अपने जीवन के सफर में आप पाएंगे कि आपके पीछे जीवन की अलग अलग कहानियां हैं। कुछ लोग काफी कुछ देख चुके हैं तो कुछ को काफी कुछ देखना बाकी है। इसके बावजूद जीवन की अलग अलग परिस्थितियों, अलग अलग विचारों और अलग अलग अनुभवो से आपकी अपेक्षाओं और परीक्षाओं के स्वरूप भी अलग अलग हैं। जिस तरह गणित में एक फॉर्मूला अलग अलग अंकों के साथ हर सवाल के सही नतीजे देता है। ठीक उसी तरह जीवन के भी ऐसे फॉर्मूले हैं जिन्हें अलग अलग परिस्थितियों में भी आजमा कर सकारात्मक नतीजे लाए जा सकते हैं।
सकारात्मक नतीजों की चाहत भी कई बार भय का ही कारण बनती है। यदि नतीजे सकारात्मक नहीं आए तो? यही है अभीष्ट के न होने का डर। लेकिन चाहे गणित हो या जीवन फॉर्मूला हमेशा काम करेगा बशर्ते आप उसका सही सही उपयोग करें। डर को जानने के लिए खुद को देखना बहुत जरूरी है। अपने डर में हम इतने खो जाते हैं कि वो हमें किसी मदमस्त घोड़े की तरह हमें अपने पीछे बांधकर घसीटता हुआ ले जाता है। हम छीलते जाते हैं, चोट खाते जाते हैं लेकिन खुद को उससे नहीं छुड़ा पाते। डर का बढ़ते जाना इस घोड़े की ताकत का बढ़ते चले जाना है। जितना डरेंगे उतनी ही इसकी रफ्तार बढ़ेगी और उतनी ही आपकी तकलीफ। जब अपने डर को देखना शुरू करते हैं तो आप पाते हैं कि ये आपके अपने विचारों और अपने विषय में आपकी मान्यताओं से ही पैदा हुआ है। कई मासूम बच्चे परीक्षाओं में फेल होने पर इतने भयभीत होते हैं कि मौत को गले लगा लेते हैं। कई लोग अपने रिश्तों की परीक्षा में फेल होने पर भी इस तरह के कदम उठाते हैं। कोई भी मामला उठाकर देख लीजिए स्वस्थ लोगों को ऐसे भयग्रस्त लोग बीमार ही दिखाई पड़ते हैं। दरअसल ये भयंकर मनोरोग है भी। छोटे छोटे डर कब विकराल रूप ले लेते हैं हमें समझ ही नहीं आता। हमें ये भय मृत्यु के समान लगता है लेकिन इसके बारे में जितना सोचते हैं ये उतना ही बढ़ता जाता है। भय को देखना और उसको जानना पहला कदम है। जब आप पुराने भय के आज कोई अस्तित्व नहीं होने का अहसास करते हैं तो आपको कुछ कुछ इस बात का भी अहसास करना चाहिए कि वर्तमान में जो बातें आपको परेशान कर रही हैं या डरा रही है उनका भी कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। जब आप समय के साथ परिस्थिति परिवर्तन के फॉर्मूले को समझते हैं तो जीवन के उतार चढ़ाव को सहजता से देखना शुरू करते हैं। दुनिया में ऐसा कोई नहीं जो सिर्फ सुखद परिस्थितियां ही देखता है और ऐसा भी कोई नहीं जो सिर्फ दुखद परिस्थितियां देखता है।
भय का सबसे बड़ा भोजन उसका सतत चिंतन है। आपको अपने विचारों को विराम देने का अभ्यास आना चाहिए। आपके मस्तिष्क में उठने वाले विचार ही आपका मन बना रहे हैं और फिर यही मन आपके व्यक्तित्व को बना रहा है। बीज रूप से विचार ही भय को लाते हैं और विचार ही इस भय के अंत का एक मात्र उपाय हैं। आप नकारात्मक विचारों के सतत चिंतन से भयग्रस्त होते हैं तो इनके विपरीत विचारों या सकारात्मक चिंतन से आप इस भय को कमजोर कर सकते हैं। परिस्थितियां एक जैसी नहीं रहती है। यदि परिस्थितियां बहुत सुंदर नहीं है तो धैर्य रखिए उनमें सकारात्मक परिवर्तन आएगा। यदि परिस्थितिया बहुत सुंदर हैं तो उन्हें जकड़ रखने का असफल प्रयास न करिए उनके खोने का डर भी उतना ही भयानक है जितना बुरी परिस्थितियों मे जीने का। स्वामी शरणानंद जी के शब्दों में आप स्वयं को मिली परिस्थितियों का एक समान सकारात्मक उपयोग कर सकते हैं। यदि आपको कठिन या दुखद दिखने वाली परिस्थितियां मिली हैं तो त्याग का बल अपने भीतर पैदा कीजिए। यदि आपको सुखद परिस्थितियां मिली हैं तो अपने भीतर सेवा का बल पैदा कीजिए। त्याग का अर्थ है जो नहीं है का चिंतन करने के बजाए जो है उसके प्रति कृतज्ञता का भाव पैदा करना। यदि किसी के पास तमाम दौलत हो लेकिन सेहत न हो तो उसकी दौलत किस काम की, लेकिन जिसके पास दौलत नहीं और सेहत है वो क्या इस सेहत की कद्र कर पाता है? वो क्या इसका सदुपयोग कर पाता है? यदि करता है तो वो कभी भयग्रस्त नहीं रहेगा और यदि नहीं करता है तो वो अपना समय, ऊर्जा और ईश्वर से मिले गुणों का दुरपयोग ही कर रहा है। भय कुछ और नहीं स्वयं को मिली परिस्थितियों का दुरपयोग और व्यर्थ चिंतन है। परिस्थितियां कभी भी स्थायी नहीं रहती ये एक मंत्र परिस्थितियों की अनुपयोगिता को सिद्ध करने के लिए काफी है। परिस्थिति चिंतन से बाहर निकलिए और देखिए कैसे भय छूमंतर हो जाता है।
इस बात को एक उदाहरण के जरिए समझने की कोशिश करते हैं। अब जरा याद करिए उस समय को जब आप स्कूल या कॉलेज में थे। यदि आप स्कूल कॉलेज में हैं तो अपनी पुरानी परीक्षाओं के दौर को याद कीजिए। हर बार परीक्षा का डर मन में आता था और ईश्वर से प्रार्थना शुरू हो जाती थी बस इस बार मदद कर दो फिर सब ठीक हो जाएगा। आगे क्या होता है? कक्षाएं और परिक्षाएं बदलती रहती हैं लेकिन बस इस बार बेड़ा पार लगा दो कि प्रार्थना चलती रहती है। जो प्रार्थना को नहीं भी मानते वो अपने आत्मबल से भी यही गुहार लगाते हैं इस बार ताकत दो। यानि भय परिस्थितियों में छिपा होता है बल्कि और स्पष्ट तौर पर कहा जाए तो अनजान परिस्थितियों में छिपा होता है। अपने जीवन के सफर में आप पाएंगे कि आपके पीछे जीवन की अलग अलग कहानियां हैं। कुछ लोग काफी कुछ देख चुके हैं तो कुछ को काफी कुछ देखना बाकी है। इसके बावजूद जीवन की अलग अलग परिस्थितियों, अलग अलग विचारों और अलग अलग अनुभवो से आपकी अपेक्षाओं और परीक्षाओं के स्वरूप भी अलग अलग हैं। जिस तरह गणित में एक फॉर्मूला अलग अलग अंकों के साथ हर सवाल के सही नतीजे देता है। ठीक उसी तरह जीवन के भी ऐसे फॉर्मूले हैं जिन्हें अलग अलग परिस्थितियों में भी आजमा कर सकारात्मक नतीजे लाए जा सकते हैं।
सकारात्मक नतीजों की चाहत भी कई बार भय का ही कारण बनती है। यदि नतीजे सकारात्मक नहीं आए तो? यही है अभीष्ट के न होने का डर। लेकिन चाहे गणित हो या जीवन फॉर्मूला हमेशा काम करेगा बशर्ते आप उसका सही सही उपयोग करें। डर को जानने के लिए खुद को देखना बहुत जरूरी है। अपने डर में हम इतने खो जाते हैं कि वो हमें किसी मदमस्त घोड़े की तरह हमें अपने पीछे बांधकर घसीटता हुआ ले जाता है। हम छीलते जाते हैं, चोट खाते जाते हैं लेकिन खुद को उससे नहीं छुड़ा पाते। डर का बढ़ते जाना इस घोड़े की ताकत का बढ़ते चले जाना है। जितना डरेंगे उतनी ही इसकी रफ्तार बढ़ेगी और उतनी ही आपकी तकलीफ। जब अपने डर को देखना शुरू करते हैं तो आप पाते हैं कि ये आपके अपने विचारों और अपने विषय में आपकी मान्यताओं से ही पैदा हुआ है। कई मासूम बच्चे परीक्षाओं में फेल होने पर इतने भयभीत होते हैं कि मौत को गले लगा लेते हैं। कई लोग अपने रिश्तों की परीक्षा में फेल होने पर भी इस तरह के कदम उठाते हैं। कोई भी मामला उठाकर देख लीजिए स्वस्थ लोगों को ऐसे भयग्रस्त लोग बीमार ही दिखाई पड़ते हैं। दरअसल ये भयंकर मनोरोग है भी। छोटे छोटे डर कब विकराल रूप ले लेते हैं हमें समझ ही नहीं आता। हमें ये भय मृत्यु के समान लगता है लेकिन इसके बारे में जितना सोचते हैं ये उतना ही बढ़ता जाता है। भय को देखना और उसको जानना पहला कदम है। जब आप पुराने भय के आज कोई अस्तित्व नहीं होने का अहसास करते हैं तो आपको कुछ कुछ इस बात का भी अहसास करना चाहिए कि वर्तमान में जो बातें आपको परेशान कर रही हैं या डरा रही है उनका भी कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। जब आप समय के साथ परिस्थिति परिवर्तन के फॉर्मूले को समझते हैं तो जीवन के उतार चढ़ाव को सहजता से देखना शुरू करते हैं। दुनिया में ऐसा कोई नहीं जो सिर्फ सुखद परिस्थितियां ही देखता है और ऐसा भी कोई नहीं जो सिर्फ दुखद परिस्थितियां देखता है।
भय का सबसे बड़ा भोजन उसका सतत चिंतन है। आपको अपने विचारों को विराम देने का अभ्यास आना चाहिए। आपके मस्तिष्क में उठने वाले विचार ही आपका मन बना रहे हैं और फिर यही मन आपके व्यक्तित्व को बना रहा है। बीज रूप से विचार ही भय को लाते हैं और विचार ही इस भय के अंत का एक मात्र उपाय हैं। आप नकारात्मक विचारों के सतत चिंतन से भयग्रस्त होते हैं तो इनके विपरीत विचारों या सकारात्मक चिंतन से आप इस भय को कमजोर कर सकते हैं। परिस्थितियां एक जैसी नहीं रहती है। यदि परिस्थितियां बहुत सुंदर नहीं है तो धैर्य रखिए उनमें सकारात्मक परिवर्तन आएगा। यदि परिस्थितिया बहुत सुंदर हैं तो उन्हें जकड़ रखने का असफल प्रयास न करिए उनके खोने का डर भी उतना ही भयानक है जितना बुरी परिस्थितियों मे जीने का। स्वामी शरणानंद जी के शब्दों में आप स्वयं को मिली परिस्थितियों का एक समान सकारात्मक उपयोग कर सकते हैं। यदि आपको कठिन या दुखद दिखने वाली परिस्थितियां मिली हैं तो त्याग का बल अपने भीतर पैदा कीजिए। यदि आपको सुखद परिस्थितियां मिली हैं तो अपने भीतर सेवा का बल पैदा कीजिए। त्याग का अर्थ है जो नहीं है का चिंतन करने के बजाए जो है उसके प्रति कृतज्ञता का भाव पैदा करना। यदि किसी के पास तमाम दौलत हो लेकिन सेहत न हो तो उसकी दौलत किस काम की, लेकिन जिसके पास दौलत नहीं और सेहत है वो क्या इस सेहत की कद्र कर पाता है? वो क्या इसका सदुपयोग कर पाता है? यदि करता है तो वो कभी भयग्रस्त नहीं रहेगा और यदि नहीं करता है तो वो अपना समय, ऊर्जा और ईश्वर से मिले गुणों का दुरपयोग ही कर रहा है। भय कुछ और नहीं स्वयं को मिली परिस्थितियों का दुरपयोग और व्यर्थ चिंतन है। परिस्थितियां कभी भी स्थायी नहीं रहती ये एक मंत्र परिस्थितियों की अनुपयोगिता को सिद्ध करने के लिए काफी है। परिस्थिति चिंतन से बाहर निकलिए और देखिए कैसे भय छूमंतर हो जाता है।
सम्भार : सत्य की खोज ब्लॉग से (लेखक डॉ प्रवीण तिवारी)
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