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सिंहस्थ : भक्ति से निकली ‘सियासी समरसता’

राकेश अग्निहोत्री | (सवाल दर सवाल)
सिंहस्थ में जिस तरह भक्ति सियासतदारों के सिर चढ़कर बोल रही है उसने आस्था के इस महाकुंभ में एक नई बहस छेड़ दी है..कि क्या सिंहस्थ पर बीजेपी का कब्जा हो गया है। वैचारिक महाकुंभ जिसका आगाज संघ प्रमुख मोहन भागवत गुरुवार को करने जा रहे हैं और समापन पीएम नरेंद्र मोदी करेंगे उससे पहले बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की धर्म के प्रति आस्था, समर्पण और भक्ति के दौरान सियासतदारों में जो समन्वय और सामंजस्य देखने को मिला वह भी गौर करने लायक है। बावजूद इसके सवाल खड़ा होना लाजमी है कि जब संघ और बीजेपी की कमान संभालने वाले मोहन भागवत और अमित शाह ने मध्यप्रदेश में दस्तक दी है तो क्या राजनीतिक गलियारों में कोई उथल-पुथल आने वाले समय में देखने को मिलेगी या फिर सूबे की राजनीति में बीजेपी तमाम अटकलों पर विराम लगाते हुए मिशन 2018 में समीकरण दुरुस्त करने के लिए सिंहस्थ को अपनी बड़ी उपलब्धि बताएगी जिसमें विकास के साथ जातीय संतुलन उसके एजेंडे में सबसे ऊपर होगा।

सिंहस्थ 2016 जिसका न सिर्फ स्वरूप बदल चुका है बल्कि नए प्रयोग के साथ जब वह तीसरे और अंतिम शाही स्नान की ओर बढ़ रहा है तब संघ और बीजेपी का एजेंडा खुलकर सामने आ चुका है। वो कहते हैं न भक्ति में शक्ित यहां भी देखने को मिली चाहे वो अमित शाह से लेकर शिवराज, उनके परिवार और कैलाश विजयवर्गीय की महाकाल क्षिप्रा के प्रति भक्ति और आस्था हो लेकिन इन सियासतदारों के पार्टी अध्यक्ष के प्रति समर्पण ने सियासी समरसता को भी सामने ला दिया। यदि बहुत पहले संघ ने इस सिंहस्थ में विचार पर केंद्रित एक महाकुंभ जिसका नाम वैचारिक महाकुंभ दिया, के आयोजन का खाका तैयार किया था उसे शिवराज ने जिस तरह मूर्तरूप दिया वह उनकी संघ के प्रति निष्ठा और समर्पण को दर्शा चुका है। तीन दिन के इस महाकुंभ से पहले बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की मौजूदगी में जिस तरह पार्टी ने सामाजिक समरसता की आड़ में दलितों का दिल और भरोसा जीतने की रणनीति बनाई थी उसमें जरूर उसे संभलने के लिए मानो कुछ कदम पीछे खींचना पड़े और अंतिम समय में संत समागम पर भले ही उसने कब्जा कर िलया लेकिन पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विनय सहस्रबुद्धे से लेकर प्रभारी मंत्री भूपेंद्र सिंह को रणनीति में बदलाव के साथ यह कहना पड़ा कि सभी समाज को साथ लेकर सामाजिक समरसता की लाइन पर वो आगे बढ़ता दिखना चाहते हैं। मोहन भागवत और अमित शाह की कुछ मिनटों के अंतर से मध्यप्रदेश में अलग-अलग इंट्री हुई जिसमें भागवत संत भय्यूजी महाराज से मिलने के बाद इंदौर तक सीमित हो गए तो अमित शाह ने सपरिवार इस धार्मिक यात्रा में पुण्य कमाया चाहे फिर वो वाल्मीकि समाज के बीच जाना हो या फिर उनके विशेष घाट पर अवधेशानंद, नरेंद्रगिरी, शिवराज सिंह चौहान, नंदकुमार सिंह चौहान के साथ क्षिप्रा में डुबकी लगाई तो महाकाल के दर पर मत्था टेकने के साथ उन्होंने चरैवेती पंडाल में संतों का सम्मान कर उनके साथ भोजन करना नहीं भूले। शाह की दिलचस्पी और सिंहस्थ के प्रति आस्था का परिणाम है िक दिल्ली रवाना होने से पहले रामघाट पर क्षिप्रा की भव्य आरती में भी सपरिवार शामिल हुए तो उस वैचारिक महाकुंभ का भी रुख किया जहां देश की दो बड़ी शख्सियत भागवत और मोदी वैचारिक पृष्ठभूमि पर एक बड़ा संदेश देने वाले हैं। यहां अमित शाह ने उन प्रदर्शिनियों का उद्घाटन किया जिसमें शिवराज सरकार की दशा और दिशा को रेखांकित किया गया है।

कुल मिलाकर भक्ति के रंग में रंगे नजर आए शाह उत्तराखंड और दिल्ली की उस राजनीति से बेफिक्र नजर आए जहां बीजेपी को मानो बड़ा झटका लग चुका है। उज्जैन दौरे के दौरान शाह और विजयवर्गीय की कैमेस्ट्री भी देखने लायक थी जिसमें उन अटकलों पर विराम लग दिया कि उत्तराखंड में रावत सरकार के बहुमत साबित करने से वहां की कमान संभालने वाले कैलाश कमजोर हो सकते हैं। बीजेपी पहले ही साफ कर चुकी है कि उत्तराखंड में कांग्रेस से बगावत करने वाले विधायकों के कारण संकट पैदा हुआ था। वह बात और है कि बीजेपी इसका फायदा नहीं उठा पाई। अमित शाह के उज्जैन दौरे के दौरान शिवराज के साथ समन्वय उन कयासों पर काफी हद तक विराम लगा गया कि पार्टी नेतृत्व सूबे पर अपनी नजर लगाए हुए है जहां संगठन महामंत्री अरविन्द मेनन की जगह सुहास भगत को भेजा गया है। शाह और चौहान दंपत्ति के बीच तालमेल गौर करने लायक था जहां शिवराज एक बेहतर मेजबान साबित हुए जिन्होंने अपनी मेहनत और दूरदर्शिता के साथ प्रबंधन के मोर्चे पर महारत साबित कर सिंहस्थ की पहचान औऱ उसकी दिशा दोनों बदल दी है चाहे फिर वो साधु संतों केसाथ समन्वयहो या फिर उसकी आड़ में सियासी डुबकी लगाकर अपने नेतृत्व का लोहा मनवान ही क्यों न हो। देखना दिलचस्प होगा कि अमित शाह का भरोसा जीतने के बाद शिवराज अब मोहन भागवत और नरेंद्र मोदी की कसौटी पर किस हद तक खरा उतर पाते हैं। आने वाले समय में ये दोनों हस्तियां कुछ बड़े फैसले लेती नजर आ सकती है। यहां सवाल खड़ा होता है कि सिंहस्थ में भक्ति से निकली सियासी समरसता अब जो गुल खिलाने लगी है उसका असर मोदी और शाह की टीम में प्रस्तावित बदलाव को किस हद तक प्रभावित करती है।

(लेखक स्वराज एक्सप्रेस एमपी/सीजी के पॉलिटिकल एडिटर हैं)

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