अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर विशेष श्रृंखला ( द्वितीय विचार) आलेख योग जीवन का हिस्सा नहीं जीवन जीने का तरीका है
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर विशेष श्रृंखला ( द्वितीय विचार) आलेख
योग जीवन का हिस्सा नहीं जीवन जीने का तरीका है
अनूपपुर / प्रदीप मिश्रा - 8770089979
योग को परिभाषित करने अथवा समझने से पूर्व यह आवश्यक है की पहले जीवन को समझा जाय। अगर सामान्य शब्दो मे कहा जाय तो जन्म से लेकर मृत्यु के बीच का समय जीवन कहलाता है। पेढ पौधों मे भी जीवन होता है। यहाँ यह विचारणीय है की जड़ और चेतन को क्या सिर्फ गतिशील होना ही अलग करता है। नहीं चेतन जीवों मे जो विवेक होता है, जो विचारण क्षमता होती है वह जड़ जीवों की तुलना मे अधिक जागृत होती है। यही विवेक ही मनुष्य को जानवरो से भी अलग करता है। यह क्षमता बहुत शक्तिशाली है, जहां एक ओर यह परेशानियों से मुक्ति दिलाती है , विकट परिस्थितियों मे सही मार्ग का चयन करने मे सहयोग प्रदान करती है, वहीं दूसरी ओर इसका संतुलन बनाकर रखना भी एक दुष्कर कार्य है। यह अन्तर्मन भौतिक सुख सुविधाओं से परे है। अगर मनुष्य के पास संसाधनों की कमी है तो कभी कभी उसे ऐसा आभास होता है कि किंचित सुविधाओं के न होने की वजह से उसका चित्त अशांत है। परंतु ऐसा वास्तव मे होता नहीं है , धनाढ्य व्यक्ति भी चित्त की गति से परेशान हैं। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि सुखमय जीवन जीने का आखिर उपाय क्या है? यह हमारे लिए गौरव की बात है कि इस जटिल प्रश्न का हल हमारे भारत वर्ष के पूर्वजों द्वारा ढूंढ लिया गया है। सिंधु घाटी की सभ्यता मे भी इसके अभ्यास के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। इसका हल है योग साधना के माध्यम से साधक के शरीर, मन एवं कर्मो का एकीकरण । जो हम सोचते वह भी परिष्कृत हो, जो हम चाहते हैं वो भी परिष्कृत होकर उत्तम हो। हमारे शरीर मे उस कार्य को करने की क्षमता हो और हमार आचरण भी उसी दिशा मे हो।ये समस्त कार्य करने का उपाय योग मे है। योग मे वह शक्ति है जो श्मनसा वाचा कर्मणाश् का एकीकरण कर सकती है। योग के माध्यम से मनुष्य अपने अंदर छुपी हुई असीम ऊर्जा को जागृत कर सकता है अपने मन पर नियंत्रण लाकर उस ऊर्जा का उपयोग सही रास्ते मे कर सुखमय जीवन जी सकता है। योग एक अभ्यास है , एक साधना है यह जीवन का हिस्सा नहीं वरन स्वस्थ, सुखमय एवं शांतिपूर्वक जीवन जीने का तरीका है। भारत की इस अद्भुत विरासत को पूरे विश्व ने समझा और अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप मे इसके महत्व को निरूपित किया। सिर्फ ज्ञान का होना और उसे बाटना पर्याप्त नहीं है। उसे आत्मसाथ करना ही उस ज्ञान का मूलभूत लक्ष्य है। अगर हमारे मन, वाणी एवं कर्म एकीकृत नहीं है, और हम अपने बताए गए ज्ञान से खुद ही लाभान्वित नहीं हो रहे हैं तो हम खुद ही अपनी इस धरोहर के मूल को क्षति पहुंचा रहे हैं। आइये हम सब प्रण करे योग को आत्मसाथ कर अपने जीवन को सार्थक बनाएँगे।
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