RSS के आमंत्रण की ‘‘प्रणब दा’’ द्वारा स्वीकारिता पर इतना हंगामा क्यों?
‘‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’’ प्रत्येक वर्ष संघ तृतीय वर्ष शिक्षा वर्ग के समापन (दीक्षांत समारोह) मुख्यालय नागपुर में आयोजित करता है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक वर्ष विजया-दशमी (दशहरा) के अवसर पर भी मुख्यालय नागपुर पर वार्षिकोत्सव का आयोजन होता है। इन अवसरो पर संघ देश की विभिन्न प्रमुख हस्तियों को अतिथियों (मुख्य वक्ता) के रूप में बुलाता रहा है। इसी कड़ी में भारत के पूर्व राष्ट्रपति महामहिम प्रणब मुखर्जी को इस वर्ष संघ शिक्षा वर्ग तृतीय वर्ष के समापन पर प्रमुख अतिथि (वक्ता) के रूप में आमंत्रण दिया गया जिसे प्रणब दा द्वारा स्वीकार कर लिया गया है। जब मिया बीबी राजी तो क्या करेगा काजी! इस मामले में निमंत्रण देने व उसे स्वीकार करनेे का अधिकारिक क्षेत्र दोनो पक्षों के अलावा अन्य तीसरे किसी भी पक्ष को टोका टोकी, प्रश्नवाचक चिन्ह लगाने का अधिकार नहीं है। तब भी हमेशा की तरह बयानवीरो के ऐसे बयान क्यों? प्रश्न यह है।
राष्ट्रपति बनने के पूर्व प्रणब मुखर्जी कांग्रेस के सर्वोच्च नेताओं में से एक संकटमोचक नेता के रूप में जाने जाते रहे है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री पद की दौड़ में उनका नाम प्रमुखता से लिया गया था। कांग्रेस के वे उन कुछ बिरले नेताओं में से रहे है, जो कट्टर कांग्रेसी होने के बावजूद कट्टरवादी व्यक्ति नहीं माने जाते रहे है। वर्ष 1997 में वे एक उत्कृष्ट सांसद भी चुने गये थे। कांग्रेस संसदीय दल एवं लोकसभा सदन के नेता के साथ-साथ लम्बे समय तक वरिष्ठ केबिनेट मंत्री होने के कारण भी उनके विरोधी दलो के नेताओं से काफी अच्छे व्यक्तिगत संबंध रहे है। इसका फायदा भी उन्हे राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार होने के बावजूद मिला था। यद्यपि कुछ समय के लिए उन्होने कांग्रेस छोड़कर एक नई प्रादेशिक पार्टी राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस बनाई थी, जिसका बाद में पुनः वर्ष 1989 में कांग्रेस में विलीनीकरण हो गया था। अर्थात् एक मजबूत कांग्रेसी नेता के नाते दादा के मजबूत कंधो पर कांग्रेस की सत्ता की नाव को ‘‘दादा’’ ने नाविक के रूप में अपने नेता को काफी लम्बे समय तक हवा के विपरीत दिशा में भी अपने कौशल व अनुभव से सफलता दिलाई थी।
ऐसे मजबूत नीव वाले पूर्व कांग्रेसी नेता प्रणब दा के द्वारा आरएसएस के निमंत्रण को स्वीकार करने पर कुछ कांग्रेसी नेताओं की ओर से जो अवमानना पूर्ण और अशोभनीय बयान आ रहे है, वे अत्यन्त खेद जनक है। यद्यपि कांग्रेस की आधिकारिक प्रतिक्रिया ‘‘कोई टिप्पणी नहीं’’ ‘‘(नो कमेंटस’’) थी, जो स्वागत योग्य है। आलोचक कांग्रेसी गण आलोचना करते समय इस बात को भूल गये कि प्रणब मुखर्जी ने प्रणब मुखर्जी फाउडेशन के शुरू होने के अवसर पर संघ के शीर्ष नेताओं को बुलाने के साथ-साथ राष्ट्रपति के अपने कार्यकाल के अंतिम समय में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को दोपहर भोज के लिये लिये राष्ट्रपति भवन में आमंत्रित भी किया था। प्रथमतः किसी भी कांग्रेसी को यह समझना आवश्यक है कि जब पार्टी का सदस्य राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च संवैधानिक पद पर पहंुच जाता है तब वह न केवल पद पर विराजमान रहने तक पार्टी का सदस्य नहीं रह जाता है बल्कि संवैधानिक पद से विमुक्त होने के बाद भी उसकी स्थिति वैसे ही रहती है। क्योकि यह एक स्थापित मापदंड है कि नैतिक रूप से सर्वोच्च संवैधानिक पद राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल जैसे पदो से पदमुक्त होने के बाद भी वह पदविमुक्त व्यक्ति पार्टी का मूल सदस्य न होकर संवैधानिक पद की गरिमा को बनाये रखने के कारण वह राष्ट्र का गैर राजनैतिक नागरिक हो जाता है। नैतिक रूप से राजनैतिक पार्टी का सदस्य न होने के बावजूद उसकी स्वयं की राजनैतिक विचार धारा हो सकती है। लेकिन वह सक्र्रिय राजनीति का भाग नहीं हो सकता है। इस दृष्टि से पूर्व राष्ट्रपति, राष्ट्र की एक धरोहर है।
राजनैतिक दृष्टि से किसी विशिष्ट विचार धारा को मानने के बावजूद, किसी विपरीत विचार धारा द्वारा दिये इस आमंत्रण को स्वीकार करने पर कोई आलोचना नहीं होनी चाहिये। इसके विपरीत तब इसका एक ही अर्थ निकलता है, कि कांग्रेस को अपने नेता प्रणब दा पर अब शायद यह विश्वास नहीं रह गया है कि वे अपनी विरोधी विचार धारा आरएसएस के कार्यक्रम में जाकर अपनी विचार धारा को बनाये रख पायेगें। अर्थात कहीं अपनी पहचान तो नहीं खो देगंे? लेकिन इतने हल्के प्रणव दा है नहीं। संघ ने विचार धाराओं की टकराहट के बावजूद यदि उन्हे अपने मंच पर बुलाकर विचार प्रकट करने का मौका दिया है, तो यह संघ की व्यापक सोच व बड़प्पन का ही परिचय है। साथ ही प्रणब दा भी बधाई के पात्र है जिन्होने उक्त सम्मानीय निमंत्रण को स्वीकार किया है। लेकिन कुछ कांग्रेसीयों की मनोदशा का निम्नस्तर उनके बयानो से समझा जा सकता है।
कांग्रेसियों को एक बात को और समझना होगा। संघ ने एक ख्याती प्राप्त प्रतिष्ठित कांग्रेसी को बुलाने में कोई परहेज न करने के बावजूद अंदर खाने में यदि कोई संकट खंडा नहीं हुआ है, तो कांग्रेस महात्मा गांधी की 150 जयंती के अवसर पर एक राष्ट्रीय कार्यक्रम कर संघ प्रमुख को मुख्य वक्ता के रूप में बुलाकर (दुः) साहस का परिचय व माकूल जवाब क्यों नहीं देती? संघ की विचार धारा से उनका विरोध तो हो सकता है। वे सहमत भी नहीं हो सकते है, और यह उनका पूर्ण अधिकार है। लेकिन उन्हे इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि आज भाजपा का 22 राज्यों पर पूर्ण या गठबंधन के माध्यम से शासन है। अर्थात संघ का शासन है क्योकि कांग्रेसियो ने ही खूब पानी पीकर लम्बे समय से यही कथन किया है कि संघ सांस्कृतिक संगठन नहीं है बल्कि भाजपा उसका एक राजनैतिक संगठन है व संघ ‘‘रेशमबाग’’नागपुर से ही भाजपा को निर्देशित कर देश में भाजपा का शासन संचालित करता है। ये जुमले सुनते-सुनते हमारे कान पक गये थे। अब देश के दो तिहाई से अधिक भाग पर शासन करने वाली भाजपा को निर्देशित करने वाली संघ के निमंत्रण को स्वीकार का प्रणव दा ने देश के बहुमत को ही मान दिया है, जिसके लिये वे निश्चित रूप से साधूवाद के पात्र है।
कांग्रेसियो को एक सलाह और है कि वे अपने नेता प्रणव दा की योग्यता, ज्ञान, वाकपटुता, विचार मंथन, राजनैतिक सार्वजनिक जीवन का दीर्घ अनुभव व तीव्र बुद्धि पर पूर्ण विश्वास रखे कि ‘‘रेशमबाग’’ में उद्बोधन के बाद वे संघी होकर नहीं निकेलेगें। हाँ शायद दोनो विचारधाराओं में जो फरक 36 के आकड़े का है, उसमें देश हित से कुछ अंतर, दूरी अवश्य कम होगी, क्योकि ऐसे आयोजन का अंततः उद्ेश्य भी यही होता है।
याद आता है जब मुझे डाॅ. सुनीलम जो पूर्व विधायक व समाजवादी विचार धारा के है, के मंच पर आने का निमत्रंण मिला था। तब कई साथी मेरे वहां जाने को पचा नहीं पा रहे थे, तब मैने अपने साथियों से यही कहा कि मै वहां जाकर अपनी बात को दृढ़ता से रखकर उन्हे संदेश देने का प्रयास करूगाँ। विश्वास रखिये, सुनीलम का रंग मेरे पर नहीं चढेगा, बल्कि मेरे उद्बोधन के बाद सुनीलम मुझे शायद आगे नहीं बुलाएगें। आज यही विश्वास प्रत्येक कांग्रेसी को डाॅ. प्रणब मुखर्जी के प्रति रखना होगा।
राजीव खण्डेलवाल
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष हैं)
ये लेखक के निजी विचार है

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