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कौन नहीं जानता आल्हा और ऊदल को? नहीं जानते तो पढ़ें

फेसबुक पर किसी ने लिखा आल्हा काल्पनिक हैं उनका कोई इतिहास मौजूद नहीं है। जवाब में आनंद तोमर ने आल्हा का इतिहास और सत्यता प्रामाणिकता के साथ सामने लाकर रख दी मल्हार मीडिया के पाठक भी जानें क्या थे आल्हा और ऊदल:-

आल्हा-ऊदल की वीरगाथा में कहा गया है ‘बड़े लड़इया महुबे वाले, इनकी मार सही न जाए..!’ आज से 832 साल पहले दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान ने राजकुमारी चंद्रावल को पाने और पारस पथरी व नौलखा हार लूटने के इरादे से चंदेल शासक राजा परमाल देव के राज्य महोबा पर चढ़ाई की थी. युद्ध महोबा के कीरत सागर मैदान में हुआ था, जिसमें आल्हा-ऊदल की तलवार की धार के आगे वह टिक न सके। युद्ध के कारण बुंदेलखंड की बेटियां रक्षाबंधन के दूसरे दिन ‘कजली’ दफन कर सकी थीं। आल्हा-ऊदल की वीरगाथा के प्रतीक ऐतिहासिक कजली मेले को यहां ‘विजय उत्सव’ के रूप में मनाने की परम्परा आज भी जीवित है।

महोबा रियासत के चंदेल शासकों के सेनापति रहे आल्हा और ऊदल को देश में कौन नहीं जानता। सन् 1181 में उरई के राजा मामा माहिल के कहने पर राजा परमाल देव ने अपने दोनों सेनापतियों (आल्हा-ऊदल) को राज्य से निष्कासित कर दिया था, जिसके बाद दोनों ने कन्नौज के राजा लाखन राणा के यहां शरण ले ली थी। इसकी भनक लगते ही दिल्ली नरेश पृथ्वीराज ने उस समय महोबा पर चढ़ाई की, जब रक्षाबंधन के दिन डोला में सवार होकर राजकुमारी चंद्रावल (राजा परमाल की बेटी) अपनी सखियों के साथ कीरत सागर में कजली दफन करने पहुंचीं।

युद्ध रोकने के लिए पृथ्वीराज ने राजा परमाल से बेटी चंद्रावल, पारस पथरी और नौलखा हार सौंपने की शर्त रखी। यह शर्त दासता स्वीकार करने जैसी थी, इसलिए युद्ध के सिवा कोई चारा नहीं था और कीरत सागर के इसी मैदान में दोनों सेनाओं के बीच जबर्दस्त युद्ध छिड़ जाने पर बुंदेलखंड की बेटियां उस दिन कजली नहीं दफन कर सकीं।

राजकुमारी चंद्रावल ने भी अपनी सहेलियों के साथ विरोधी सेना का मुकाबला किया था। इस युद्ध में परमाल का बेटा राजकुमार अभई शहीद हो गया। जब यह खबर कन्नौज पहुंची तो आल्हा, ऊदल और कन्नौज नरेश लाखन ने साधुवेश में कीरत सागर के मैदान में पहुंचकर पृथ्वीराज की सेना को पराजित कर दिया। इस युद्ध में बुंदेली राजा परमाल की जीत और आल्हा व उनके छोटे भाई ऊदल की वीरगाथा के प्रतीक स्वरूप हर साल कीरत सागर मैदान में सरकारी खर्च पर ऐतिहासिक कजली मेला ‘विजय उत्सव’ के रूप में मनाने की परम्परा बन गई है।

खास बात यह है कि उस युद्ध के कारण पूरे इलाके में रक्षाबंधन दूसरे दिन मनाया जाता है। इतिहासकार राधाकृष्ण बुंदेली बताते हैं, ‘आल्हा और ऊदल की वीरगाथा से जुड़ा यह महोबा का कजली मेला हर साल ‘विजय उत्सव’ के रूप में मनाने की परम्परा है।’ वह बताते हैं कि समूचे बुंदेलखंड में महोबा युद्ध के कारण दूसरे दिन कजली दफना कर रक्षाबंधन मनाने का रिवाज है।

आठ सौ उन्नीस वर्ष पुराना महोबा का कजली मेला यहां विजय उत्सव के रुप में मनाया जाता है। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार तब दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान ने अपने राज्य विस्तार के क्रम में महोबा की सीमा में सेना का पड़ाव डाल यहां के चंदेल राजा परमाल से युद्ध न करने के बदले राजकुमारी चन्द्रावल, नौलखाहार, पारस पत्थर समेत पांच प्रमुख चीजें सौंपने और उनकी आधीनता स्वीकार करने की खबर भेजी थी।

मातृभूमि पर आए इस संकट से उस समय चंदेल सेनानायकों आल्हा ऊदल ने अपनी छोटी सी सैनिकों की टुकड़ी के साथ सामना किया और सावन की पूर्णिमा को लडे़ गये युद्ध में चौहान सेना को बुरी तरह पराजित करते हुए न सिर्फ खदेड़ दिया था बल्कि पृथ्वीराज चौहान के दो पुत्रों ने इसमें वीरगति भी पाई थी।

युद्ध के दूसरे दिन तब महोबा राज्य में विजय उत्सव मनाया गया। बहनों ने भाइयों को राखी बांधी थी और राजकुमारी चंद्रावल ने सखियों समेत कीरत सागर पहुंच कजली विसर्जन किया था। कवि जगनिक रचित आल्हाखण्ड के भुजरियों की लड़ाई प्रसंग में इसका पूरा वर्णन किया गया है।

बैरागढ़ के मैदान में पृथ्वीराज के सेनापति चामुंडराय, जिसे आल्हखंड में चौड़ा कहा गया है, ने धोखे से ऊदल की हत्या कर दी थी। ऊदल की हत्या के बाद ही चौहान सेना चंदेल योद्धाओं का वध करने में सफल हुई थी। महोबा में इस वीर योद्धा के नाम से एक चौक का नाम ऊदल चौक रखा गया है। ऊदल को आदर देते हुए आज भी लोग इस चौक पर घोड़े से सवार होकर नहीं जाते हैं।

महोबा के अंग्रेज प्रशासक जेम्स ग्रांट ने लिखा है कि ‘एक बार बारात जा रही थी और दूल्हा घोड़े पर बैठा था। जैसे ही बारात ऊदल चौक पहुंची घोड़ा भड़क गया और उसने दूल्हे को उठाकर पटक दिया। मैं परंपरागत रूप से सुनता आया हूं कि ऊदल चौक पर कोई घोड़े पर बैठकर नहीं जा सकता और आज मैने उसे प्रत्यक्ष देख लिया।’

महोबा के ढेर सारे स्मारक आज भी इन वीरों की याद दिलाते हैं। कुछ नवनिर्मित हैं और कुछ उस युग के ध्वंसावशेष। आल्हा-ऊदल के नाम पर महोबा शहर के ठीक बीचों-बीच दो चौक बनाए गए हैं। यहां आल्हा-ऊदल की दो विशालकाय प्रतिमाएं हैं। आल्हा अपने वाहन गज पशचावद पर सवार हैं। ऊदल अपने उड़न घोड़े बेदुला पर सवार हैं। ये दोनों प्रतिमाएं इतनी भीमकाय और जीवंत हैं कि इन्हें देखने लोग दूर-दूर से आते हैं। कीरत सागर के किनारे आल्हा की चौकी है जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां आल्हा के गुल्म के सैनिक रहते थे। ऐसी ढेर सारी चौकियां महोबा में आबाद हैं जो सामंती परिवेश की याद दिलाती हैं। आल्हा के पुत्र इंदल की चौकी मदन सागर के बीचों-बीच हैं। इसका संपर्क अथाह जलराशि के नीचे सुरंग के माध्यम से किले से था।

प्रशासन ने अब इस सुरंग को बंद कर दिया है। आल्हखंड के अनुसार इंदल भी अपने पिता आल्हा की तरह अमर माने गए हैं। यह कहा जाता है कि गुरु गोरखनाथ ने जब यह देखा कि आल्हा अपने दिव्य अस्त्रों से पृथ्वीराज का बध कर देगा तो वे उसे और इंदल लेकर कदली वन चले आए। इस कदली वन की पहचान हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उत्तराखंड के तराई इलाकों से की है। आल्हा की उपास्य चंडिका और मनियां देव आज भी महोबा में उसी प्रकार समादृत हैं। चंडिका देवी की उपासना महोबा वासी ही नहीं अपितु संपूर्ण बुंदेलखंड करता है। नवरात्र के अवसर पर यहां सारा बुंदेलखंड उमड़ पड़ता है। आल्हा की सुमरनी इन्हीं चंडिका मां से प्रारंभ होती है।

साभार :- आनंद तोमर के ब्लॉग से

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