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आजादी के महानायक मंगल पांडे जिन्होंने फूंका था अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल उन्हें आज ही के दिन...



भारतीय क्रान्ति के अमर नाम और धधकती क्रान्ति को पहली बार आरम्भ कर के ब्रिटिश सत्ता की जड़ तक हिला डालने वाले अमर क्रांतिकारी मंगल पांडे का जन्म 19 जुलाई, 1827 को उत्तर प्रदेश के फैज़ाबाद ज़िले के दुगवा रहीमपुर नामक गाँव में हुआ जो महराजगंज थाने के सदर तहसील में आता है .. इनके पिता का नाम दिवाकर पांडे तथा माता का नाम श्रीमति अभय रानी था। फ़ैज़ाबाद के दुगावाँ-रहीमपुर के मूल निवासी पण्डित दिवाकर पाण्डेय सुरहुरपुर स्थित अपनी ससुराल में बस गये थे। वे कोलकाता के पास बैरकपुर की सैनिक छावनी में "34वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री" की पैदल सेना के 1446 नम्बर के सिपाही थे। भारत की आज़ादी की पहली लड़ाई अर्थात 1857 के संग्राम की शुरुआत उन्हीं के बिगुल से आरम्भ हुई थी।

1857 के संग्राम की नीव उस समय पड़ी जब सिपाहियों को 1853 में एनफील्ड पी 53 नामक बंदूक दी गई. यह बंदूक पुरानी और कई दशकों से उपयोग में लायी जा रही ब्राउन बैस के मुकाबले में शक्तिशाली और अचूक थी. नयी एनफील्ड बंदूक भरने के लिए कारतूस को पहले दांतों से काट कर खोलना पडता था और उसमें भरे हुए बारुद को बंदूक की नली में भर कर कारतूस में डालना पड़ता था. कारतूस के बाहरी आवरण मे चर्बी होती थी जो कि उसे नमी अर्थात पानी की सीलन से बचाती थी. सिपाहियों के बीच तेजी से यह अफवाह फैल चुकी थी कि कारतूस में लगी हुई चर्बी सुअर और गाय के मांस से बनायी जाती है जो हिन्दू और मुसलमान सिपाहियों, दोनों की धार्मिक भावनाओं के विरुद्ध था लेकिन इसके खिलाफ खड़े होने का साहस केवल मंगल पाण्डेय ही कर सके .. बाकी तमाम लोग वो सब करते रहे जो अंग्रेज चाहते थे .

ब्रिटिश सेना के कई गोरे अधिकारियों की तरह 34वीं इन्फैंट्री का कमांडेंट व्हीलर भी ईसाई मत प्रचारक भी था। अनेक ब्रिटिश अधिकारियों की पत्नियाँ, या वे स्वयं बाइबिल के हिन्दी अनुवादों को फारसी और भारतीय लिपियों में छपाकर सिपाहियों को बाँट रहे थे। ईसाईयत अपनाने वाले सिपाहियों को अनेक लाभ और रियायतों का प्रलोभन दिया जा रहा था। उस समय बड़े पैमाने पर धर्मांतरण करने के लिये भारत में प्रचलित धर्मों का अपमान हो रहा था, जिसकी वजह से सभी के मन में विद्रोह की चिंगारी भड़क रही थी। फ़तहपुर के अंग्रेज़ कमिश्नर ने नगर के चार द्वारों पर खम्भे लगवाकर उन पर हिन्दी और उर्दू में दस कमेन्डमेंट्स खुदवा दिए थे। सेना में सिपाहियों की नैतिक-धार्मिक भावनाओं का अनादर किया जाने लगा था। इन हरकतों से भारतीय सिपाहियों को लगने लगा कि अंग्रेज अधिकारी उनका धर्म भ्रष्ट करने की पुरज़ोर कोशिश कर रहे थे। लेकिन अफ़सोस की बात ये रही कि इसके खिलाफ भी आवाज केवल मंगल पाण्डेय ही उठा सके , बाकी सब वो करते रहे जो अंग्रेज चाहते थे .

इन दिनों देश में नई हलचल दिख रही थी। कुछ बैरकों में छिटपुट आग लगने की घटनायें हुईं। जनरल हीयरसे जैसे एकाध ब्रिटिश अधिकारियों ने पशुवसा वाले कारतूस लाने के खतरों के प्रति अगाह करने का असफल प्रयास भी किया। अम्बाला छावनी के कप्तान एडवर्ड मार्टिन्यू ने तो अपने अधिकारियों से वार्ता के समय क्रोधित होकर इन कारतूसों को विनाश की अग्नि ही बताया था लेकिन, दिल्ली से लन्दन तक सत्ता के अहंकार में डूबे किसी अधिकारी ने ऐसे विचार पर ध्यान नहीं दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी की रियासत व राज हड़प और फिर इशाई मिस्नरियों द्वारा धर्मान्तर आदि की नीति ने लोगों के मन में अंग्रेजी हुकुमत के प्रति पहले ही नफरत पैदा कर दी थी और जब कंपनी की सेना की बंगाल इकाई में 'एनफील्ड पी.53' राइफल में नई कारतूसों का इस्तेमाल शुरू हुआ तो मामला और बिगड़ गया।

ये साल 1857 के मार्च महीने की 29 तारीख थी अर्थात आज की ही . मंगल पांडेय 34वीं बंगाल नेटिव इंफेन्टरी के साथ बैरकपुर में तैनात थे. उसी समय अन्दर से खबर आई कि ईसाईयत का विरोध करने वाले हिंदुस्थानी सैनिको को मारने के लिए यूरोप से और सैनिक मंगाए है हैं और उनको एक एक कर के मार दिया जाएगा जिसके बाद मंगल पाण्डेय से नहीं रहा गया और उन्होंने धर्म और राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा के लिए अपने इरादों को मजबूत कर लिया . ब्रिटिश इतिहासकार इतिहासकार किम ए वैगनर ने अपनी क़िताब 'द ग्रेट फियर ऑफ 1857 में लिखा है कि - " शाम के 4 बजे थे. मंगल पांडे अपने तंबू में बंदूक साफ कर रहे थे. थोड़ी देर बाद अपनी आधिकारिक जैकेट, टोपी और धोती पहने मंगल पांडेय अपनी तलवार और बंदूक लेकर क्वार्टर गार्ड बिल्डिंग के करीब परेड ग्राउंड की ओर दौड़ पड़े."

आगे का वर्णन ब्रिटिश इतिहासकार रोज़ी लिलवेलन जोन्स ने अपनी किताब "द ग्रेट अपराइजिंग इन इंडिया, 1857 - 58 अनटोल्ड स्टोरीज, इंडियन एंड ब्रिटिश में करते हुए तलवार और अपनी बंदूक से लैस मंगल पांडेय ने क्वार्टर गार्ड (बिल्डिंग) के सामने घूमते हुए अपनी रेजिमेंट को अपने साथ उठ खड़े होने और एक साथ मिल कर अंग्रेजो पर हमले के लिए ललकारना शुरू कर दिया लेकिन बाकी सैनिक ख़ामोशी से केवल इसको देख रहे थे . उस समय सार्जेन्ट मेजर जेम्स ह्वीसन इस सबके बारे में जानने के लिए पैदल ही बाहर निकले. इसके बाद मंगल पाण्डेय ने जेम्स ह्वीसन को गोली मार दी थी .

इतने में गद्दार सिपाहियों ने इस बगावत की सूचना अडज्यूटेंट लेफ्टिनेंट बेंपदे वोघ को इस बारे में बताया गया तो वह अपने घोड़े पर सवार होकर मंगल पाण्डेय से लड़ने पहुच गया .. उसको देखते ही बंदूक लोड करते हुए देखा. मंगल पांडेय ने फिर एक बार गोली चलाई. इसके मंगल पांडेय ने अपनी तलवार से सार्जेंट मेजर और एडज्युटेंट पर हमला बोल दिया और दोनों को गंभीर रूप से घायल कर दिया जिनकी बाद में मौत हो गयी थी . इस पूरे मामले में सिपाही इश्वरी प्रसाद पाण्डेय ने भी मंगल पाण्डेय का कहीं न कहीं से साथ दिया था जिन्हें बाद में मंगल पाण्डेय का साथी मान कर फांसी की सजा दे दी गयी थी लेकिन अफ़सोस वामपंथी इतिहासकारों ने इस वीर का कहीं से कोई उल्लेख नहीं किया . घायल ह्वीसन जमीन में पड़ा ईश्वरी प्रसाद पाण्डेय से मदद के लिए चिल्ला रहा था लेकिन ईश्वरी ने न खुद उसकी मदद की और न ही किसी और कोई करने दी.

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