ये तो नहीं एनसीपी के अचानक जागे बीजेपी प्रेम का राज!
नई दिल्ली । रविवार शाम जब लोग इस बारे में जानने को बेताब थे कि दिल्ली के सात रेसकोर्स रोड और मुंबई के मातोश्री के बीच संवाद का सुर आखिर किस तरफ से फूटता है, उसी समय टीवी पर अचानक एक पट्टी चलने लगी कि शरद पवार की पार्टी एनसीपी, सत्ता की राह में अटक गई बीजेपी को बिना शर्त समर्थन देने के लिए तैयार है। यानी बीजेपी शिवसेना को मनाने की कोशिश करे और इस मान मनव्वल में शिवसेना अपना भाव चढ़ाए, उससे पहले ही एनसीपी ने बांट और तराजू उखाड़ फेंके। अब गरज शिवसेना की है कि शेर घुटनों के बल चलकर तालाब तक जाए और कमल को शीष नवाए।
लेकिन एनसीपी ने ऐसा क्यों किया! क्या एक जमाने में जिस तरह नीतीश कुमार, शरद यादव और रामविलास पासवान जैसे खांटी सेकुलरों के लिए मजबूरी में बीजेपी सेकुलरों हुई थी, उसी तरह पवार के लिए भी बीजेपी अचानक धर्म निरपेक्ष हो गई, क्या पवार अचानक एनडीए का हिस्सा बन गए या उन्होंने एक नए किस्म के परोक्ष राजनीतिक सहयोग का सू़त्रपात भारतीय राजनीति में कर दिया। इन सवालों का कोई ठोस जवाब किसी के पास नहीं है और न हो सकता है।
लेकिन एक सिरा है जो महराष्ट्र में 1999 से 2009 तक चले सिंचाई घोटाले में ले जाता है। देश के किसी राज्य में अब तक हुआ यह सबसे बड़ा कथित घोटाला है। इन 10 साल में महाराष्ट् में सिंचाई के विकास के लिए 42000 करोड़ रुपए खर्च किए गए। और जब यह पैसा खर्च हो रहा था तब पवार के भतीजे अजित पवार राज्य के सिंचाई मंत्री थे। खास बात यह है कि 42000 करोड़ रुपए की लागत से राज्य में सिर्फ दशमलव एक फीसदी सिंचाई का रकबा बढाया जा सका। यही नहीं सिंचाई का बजट भी अनाप-शनाप ढंग से बढ़। बीजेपी और शिवसेना अपने प्रचार अभियान में इस घोटाले को सबसे बड़ा मुद्दा बनाए रहीं। अगर इस मामले में जांच ईमानदारी से हुई तो छोटे पवार को प्रथमदृष्टया साक्ष्यों के आधार पर जेल यात्रा करनी पड़ सकती है। और इस जमाने में जब सीबीआइ का इस्तेमाल एक राजनीतिक मुहावरा बन गया हो, तब अगर कोई चाचा अपने भतीजे के लिए हजारों करोड़ के घोटाले में चिंतित हो जाए तो कौन बड़ी बात है।
यहां समर्थन की राजनीति और घोटाले की मजबूरियों का कोई सीधा रिश्ता नहीं है, लेकिन इनके बीच बिलकुल कुछ न हो यह मान लेना भी कठिन है। जरा याद कीजिए चुनाव से पहले दोनों गठबंधनों के टूटने का मंजर। उस वक्त शिवसेना से तलाक लेने का फैसला कर चुकी भाजपा को इस बात की तस्दीक चाहिए थी कि कांग्रेस और एनसीपी का गठजोड़ भी टूट जाए। और हुआ भी ठीक यही। जैसे ही शिवसेना-बीजेपी अलग हुए, घंटे भर के भीतर एनसीपी ने कांग्रेस से अपने अलगाव की घोषणा कर दी। जबकि सामान्य राजनीतिक समझ तो उसे किसी भी कीमत पर इस गठबंधन को बचाने के लिए प्रेरित करती क्योंकि सामने बिखरा हुआ मोर्चा था। ऐसे में वे चैथी बार सत्ता में आने की सोच सकते थे। लेकिन एनसीपी ने ठीक उलटा किया।
और अब एनसीपी बिना मांगे समर्थन लिए घूम रही है जिसे स्वीकार करने के लिए बीजेपी ने अभी वक्त भी नहीं निकाला है। हां, बीजेपी इससे शिवसेना के कसबल ढीले जरुर कर रही है। राजनीति की ये बिलकुल नई बिसात है, जहां एक सियासी दल दो सियासी पार्टियों के मधुर मिलन में उत्प्रेरक का काम कर रहा है और खुद को जल में कंवल की तरह निर्लिप्त बता रहा है। ये निर्लिपत्ता कितनी मायावी है। आखिर अतीत के निजी ताल्लुकात और आज के वक्ती अहसान शायद कल को कुछ कीमत चुकाएंगे। कहते हैं न, कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, यूं ही कोई बेवफा नहीं होता।
लेकिन एनसीपी ने ऐसा क्यों किया! क्या एक जमाने में जिस तरह नीतीश कुमार, शरद यादव और रामविलास पासवान जैसे खांटी सेकुलरों के लिए मजबूरी में बीजेपी सेकुलरों हुई थी, उसी तरह पवार के लिए भी बीजेपी अचानक धर्म निरपेक्ष हो गई, क्या पवार अचानक एनडीए का हिस्सा बन गए या उन्होंने एक नए किस्म के परोक्ष राजनीतिक सहयोग का सू़त्रपात भारतीय राजनीति में कर दिया। इन सवालों का कोई ठोस जवाब किसी के पास नहीं है और न हो सकता है।
लेकिन एक सिरा है जो महराष्ट्र में 1999 से 2009 तक चले सिंचाई घोटाले में ले जाता है। देश के किसी राज्य में अब तक हुआ यह सबसे बड़ा कथित घोटाला है। इन 10 साल में महाराष्ट् में सिंचाई के विकास के लिए 42000 करोड़ रुपए खर्च किए गए। और जब यह पैसा खर्च हो रहा था तब पवार के भतीजे अजित पवार राज्य के सिंचाई मंत्री थे। खास बात यह है कि 42000 करोड़ रुपए की लागत से राज्य में सिर्फ दशमलव एक फीसदी सिंचाई का रकबा बढाया जा सका। यही नहीं सिंचाई का बजट भी अनाप-शनाप ढंग से बढ़। बीजेपी और शिवसेना अपने प्रचार अभियान में इस घोटाले को सबसे बड़ा मुद्दा बनाए रहीं। अगर इस मामले में जांच ईमानदारी से हुई तो छोटे पवार को प्रथमदृष्टया साक्ष्यों के आधार पर जेल यात्रा करनी पड़ सकती है। और इस जमाने में जब सीबीआइ का इस्तेमाल एक राजनीतिक मुहावरा बन गया हो, तब अगर कोई चाचा अपने भतीजे के लिए हजारों करोड़ के घोटाले में चिंतित हो जाए तो कौन बड़ी बात है।
यहां समर्थन की राजनीति और घोटाले की मजबूरियों का कोई सीधा रिश्ता नहीं है, लेकिन इनके बीच बिलकुल कुछ न हो यह मान लेना भी कठिन है। जरा याद कीजिए चुनाव से पहले दोनों गठबंधनों के टूटने का मंजर। उस वक्त शिवसेना से तलाक लेने का फैसला कर चुकी भाजपा को इस बात की तस्दीक चाहिए थी कि कांग्रेस और एनसीपी का गठजोड़ भी टूट जाए। और हुआ भी ठीक यही। जैसे ही शिवसेना-बीजेपी अलग हुए, घंटे भर के भीतर एनसीपी ने कांग्रेस से अपने अलगाव की घोषणा कर दी। जबकि सामान्य राजनीतिक समझ तो उसे किसी भी कीमत पर इस गठबंधन को बचाने के लिए प्रेरित करती क्योंकि सामने बिखरा हुआ मोर्चा था। ऐसे में वे चैथी बार सत्ता में आने की सोच सकते थे। लेकिन एनसीपी ने ठीक उलटा किया।
और अब एनसीपी बिना मांगे समर्थन लिए घूम रही है जिसे स्वीकार करने के लिए बीजेपी ने अभी वक्त भी नहीं निकाला है। हां, बीजेपी इससे शिवसेना के कसबल ढीले जरुर कर रही है। राजनीति की ये बिलकुल नई बिसात है, जहां एक सियासी दल दो सियासी पार्टियों के मधुर मिलन में उत्प्रेरक का काम कर रहा है और खुद को जल में कंवल की तरह निर्लिप्त बता रहा है। ये निर्लिपत्ता कितनी मायावी है। आखिर अतीत के निजी ताल्लुकात और आज के वक्ती अहसान शायद कल को कुछ कीमत चुकाएंगे। कहते हैं न, कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, यूं ही कोई बेवफा नहीं होता।
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