क्या मुख्यमंत्री ऐसे भी होते हैं?
आजकल असम में सत्ता-प्राप्ति का अभियान जोरों से चला हुआ है। भाजपा और कांग्रेस जोर आजमाइश में लगे हुए हैं। ऐसे में अचानक शरतचंद्र सिन्हा की याद हो आई। उनके बारे में इंडियन एक्सप्रेस में आज एक लेख छपा है। शरद पवार ने शरतजी के बारे में अपनी जीवनी में एक प्रसंग का उल्लेख किया है। उस पर आपको भरोसा ही नहीं होगा। क्या इस भ्रष्ट राजनीति में कोई ऐसा भी मुख्यमंत्री हो सकता है? शरत बाबू आपात्काल के दिनों में असम के मुख्यमंत्री थे। पवार ने लिखा है कि मुंबई के कांग्रेस अधिवेशन में एक लंबे-से सज्जन धोती-कुर्ता पहने चले आ रहे थे, पैदल। उनके एक हाथ में पेटी थी और सिर पर बेडिंग। वे विक्टोरिया रेल्वे स्टेशन से आजाद मैदान तक पैदल चलकर आए थे। वे गुवाहाटी से तृतीय श्रेणी के डिब्बे में दो दिन सफर करके आए थे। वे थे, मुख्यमंत्री शरतचंद्र सिन्हा! आजकल जो मुख्यमंत्री हैं और जो इस पद की दौड़ में दूसरे उम्मीदवार हैं, उन्होंने अपने लिए कुछ वर्षों में ही करोड़ रुपए खड़े कर लिए हैं।
शरतचंद्र सिन्हा के बारे में शरद पवार ने जो लिखा है, वह बिल्कुल सच होगा, यह मैं अनुभव से कह सकता हूं। उन दिनों मैं ‘नवभारत टाइम्स’ में था। आपात्काल के दिनों में मैं गुवाहाटी गया। सर्किट हाउस में ठहरा। वहां पहले मुझसे मिलने लोहियाजी के शिष्य गोलाप बरबोरा आए। वे ही शरतजी के बाद मुख्यमंत्री बने। गोलापजी ने कहा, आप शरत से जरुर मिलिए। मैं गया। वह दृश्य देखकर मैं चक्कर में पड़ गया। एक हाॅल में सौ-सवा सौ लोग बैठे थे। उनमें कौन मुख्यमंत्री है, पता ही नहीं चल रहा था। जैसे ही किसी ने जाकर उन्हें बताया, वे खड़े हुए और मेरे पास आ गए। मुझसे हिंदी में बोले ‘आपका भोजन आज मेरे साथ होगा। लेकिन पहले इन लोगों को निपटा लूं।’ आधे घंटे बाद उन्होंने मुझे एक कार में बिठाया और हम एक सुनसान बंगले के सामने रुके। न वहां कोई चपरासी, न चौकीदार, न कोई पीए और न ही कोई दरवाजा खोलने वाला। मुख्यमंत्रीजी ने खुद बड़ा गेट खोला। अंदर गए। दरवाजे की घंटी दबाई। किसी ने नहीं खोला। मुझसे उन्होंने कहा कि रसोइया कहीं गया होगा। तब तक हम दोनों सीढि़यों पर बैठ जाएं। सो बैठ गए। थोड़ी देर में वह आ गया। उसने बताया कि ये मेहमान शाकाहारी हैं, इसलिए सब्जी खरीदने चला गया था। थोड़ी देर बाद शरतजी खुद चौके में गए और खुद ही सामान ला-लाकर उन्होंने खाने की मेज़ पर रख दिया। एकदम सादा भोजन। भोजन के बाद हम दोनों कार से उनके दफ्तर रवाना हुए। मैंने पूछा, आपका परिवार कहां है? वे बोले गुवाहाटी शहर की एक बस्ती में रहता है। यह तो मुख्यमंत्री निवास है। सरकारी है। इसमें परिवार के लोग कैसे रह सकते हैं? खैर!
जब हम दफ्तर पहुंचे तो बोले, अब मेरे घर जाने का समय हो गया है। हम दोनों बाहर आए। सड़क पर खड़े हो गए। उन्होंने जोर से आवाज़ देकर एक रिक्शावाले को बुलाया। मुझसे पूछा, आपको कहां छोड़ दूं? मैंने कहा कि मैं तो पास के सर्किट हाउस में ही ठहरा हूं। पैदल ही जाउंगा। मैंने पूछा, आपकी कार का क्या हुआ? बोले कार तो सरकारी है। अपने घर जाना कोई सरकारी काम है, क्या? मैं तो बस भी पकड़ लेता हूं, कभी-कभी। ऐसे श्रद्धेय शरतजी की जन्म-शती है, इस साल! कौन मनाएगा उसे?
साभार :- डॉ.वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग से
शरतचंद्र सिन्हा के बारे में शरद पवार ने जो लिखा है, वह बिल्कुल सच होगा, यह मैं अनुभव से कह सकता हूं। उन दिनों मैं ‘नवभारत टाइम्स’ में था। आपात्काल के दिनों में मैं गुवाहाटी गया। सर्किट हाउस में ठहरा। वहां पहले मुझसे मिलने लोहियाजी के शिष्य गोलाप बरबोरा आए। वे ही शरतजी के बाद मुख्यमंत्री बने। गोलापजी ने कहा, आप शरत से जरुर मिलिए। मैं गया। वह दृश्य देखकर मैं चक्कर में पड़ गया। एक हाॅल में सौ-सवा सौ लोग बैठे थे। उनमें कौन मुख्यमंत्री है, पता ही नहीं चल रहा था। जैसे ही किसी ने जाकर उन्हें बताया, वे खड़े हुए और मेरे पास आ गए। मुझसे हिंदी में बोले ‘आपका भोजन आज मेरे साथ होगा। लेकिन पहले इन लोगों को निपटा लूं।’ आधे घंटे बाद उन्होंने मुझे एक कार में बिठाया और हम एक सुनसान बंगले के सामने रुके। न वहां कोई चपरासी, न चौकीदार, न कोई पीए और न ही कोई दरवाजा खोलने वाला। मुख्यमंत्रीजी ने खुद बड़ा गेट खोला। अंदर गए। दरवाजे की घंटी दबाई। किसी ने नहीं खोला। मुझसे उन्होंने कहा कि रसोइया कहीं गया होगा। तब तक हम दोनों सीढि़यों पर बैठ जाएं। सो बैठ गए। थोड़ी देर में वह आ गया। उसने बताया कि ये मेहमान शाकाहारी हैं, इसलिए सब्जी खरीदने चला गया था। थोड़ी देर बाद शरतजी खुद चौके में गए और खुद ही सामान ला-लाकर उन्होंने खाने की मेज़ पर रख दिया। एकदम सादा भोजन। भोजन के बाद हम दोनों कार से उनके दफ्तर रवाना हुए। मैंने पूछा, आपका परिवार कहां है? वे बोले गुवाहाटी शहर की एक बस्ती में रहता है। यह तो मुख्यमंत्री निवास है। सरकारी है। इसमें परिवार के लोग कैसे रह सकते हैं? खैर!
जब हम दफ्तर पहुंचे तो बोले, अब मेरे घर जाने का समय हो गया है। हम दोनों बाहर आए। सड़क पर खड़े हो गए। उन्होंने जोर से आवाज़ देकर एक रिक्शावाले को बुलाया। मुझसे पूछा, आपको कहां छोड़ दूं? मैंने कहा कि मैं तो पास के सर्किट हाउस में ही ठहरा हूं। पैदल ही जाउंगा। मैंने पूछा, आपकी कार का क्या हुआ? बोले कार तो सरकारी है। अपने घर जाना कोई सरकारी काम है, क्या? मैं तो बस भी पकड़ लेता हूं, कभी-कभी। ऐसे श्रद्धेय शरतजी की जन्म-शती है, इस साल! कौन मनाएगा उसे?
साभार :- डॉ.वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग से
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