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आरक्षण : क्या कांग्रेस की राह पर बीजेपी...

(राकेश अग्निहोत्री)सवाल दर सवाल
शिवराज सरकार ने नौकरियों में पदोन्नति की आरक्षण व्यवस्था को जारी रखने की मंशा के साथ सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला उस वक्त किया है जब बीजेपी और संघ आरक्षण व्यवस्था को लेकर विरोधियों के निशाने पर हैं तो दोनों में समन्वय का अभाव और सोच में विरोधाभाष को लेकर सामने आए बयान सुर्खियां बनते रहे। आरक्षण को लेकर बीजेपी शासित मध्यप्रदेश में जो नई स्थिति निर्मित हुई है तो इससे बीजेपी शासित दो और राज्यों गुजरात और हरियाणा में अलग-अलग फार्मूले पर उनकी सरकार आगे बढ़ती हुई नजर आई है। ऐसे में सवाल खड़ा होना लाजमी है कि क्या विकास के एजेंडे पर चुनकर आई मोदी सरकार कुछ नए प्रयोग के साथ 50 साल से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस की राह पर बढ़ने के लिए अब धर्म से आगे निकलकर जाति और समुदाय की राजनीति की ओर बढ़ रही है तो आखिर क्यों।

आरक्षण को लेकर गुजरात और हरियाणा में बवाल भले ही अलग-अलग फार्मूला सामने आने के बाद थम गया हो लेकिन मध्यप्रदेश में नौकरी में पदोन्नति आरक्षण को लेकर सामने आए फैसले ने शिवराज सरकार को दुविधा में डाल दिया है। वह भी उस वक्त जब सबकी नजर यूपी पर है और वहां बीजेपी के सांसद वरुण गांधी ने लोकसभा और विधानसभा छोड़कर निकाय चुनाव में उम्र के मापदंड पर आरक्षण को लेकर एक नया बयान दिया है जिसमें 40 साल से कम उम्र के लिए 20 फीसदी आरक्षण जिसमें जाति और धर्म का कोई बंधन नहीं हो, की बात कही है।

 मध्यप्रदेश में 10 साल पूरे कर चुकी शिवराज सरकार के लिए नौकरियों में आरक्षण व्यवस्था पर कोर्ट का फैसला सामने आने के बाद जिस तरह उसने सुप्रीम कोर्ट जाने का ऐलान किया है वो गौर करने लायक है। फैसले के तुरंत बाद बिना समय गंवाए यदि टीम शिवराज ने यह निर्णय िलया है तो फिर समझा जा सकता है कि आरक्षण को लेकर उनकी सरकार की सोच कितनी साफ है। फिलहाल ये मामला नौकरी से जुड़ा है लेकिन संदेश काफी कुछ छुपा है। पहले भी शिवराज का यह डायलॉग चर्चा का विषय बन चुका है जब उन्होंने कहा था कि कोई माई का लाल आरक्षण नहीं छीन सकता है। ये बात तब की है जब देश में मोदी के पीएम बनने के साथ संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण व्यवस्था पर पुनर्विचार की बात कहकर बीजेपी खासतौर से मोदी को कुछ नया सोचने और फिर आगे बढ़ने का इशारा किया था। ये वो दौर था जब चर्चा जाति, धर्म, समुदाय से ऊपर उठकर विकास के नाम पर केंद्र में सरकार बना लेने का डंका पीटा जा रहा था और पर्दे के पीछे संघ बहुसंख्यकों का भरोसा और उनकी अपेक्षाओं को लेकर संजीदा हो गया था। इस बीच बिहार चुनाव हारने के बाद भागवत के आरक्षण से जुड़े बयान पर जब एक नई बहस शुरू हुई तब नरेंद्र मोदी और अमित शाह से लेकर शिवराज के बयान आरक्षण व्यवस्था जारी रखने को लेकर सामने आए। संघ की नागौर बैठक में भी ये मुद्दा उठा और स्पष्टीकरण सामने आया। 

लेकिन गुजरात में पटेलों और हरियाणा में जाटों द्वारा आरक्षण की मांग को लेकर जो आक्रामक रुख अपनाया गया उसके बाद बीजेपी की सोच में बदलाव देखने को मिला जो कम से कम संघ की सोच से इत्तेफाक नहीं रखता था। गुजरात हो या हरियाणा वहां की बीजेपी सरकार ने जाटों को कोर्ट की गाइड लाइन से इतर कैबिनेट में फैसला लिया तो गुजरात में आर्थिक आधार पर नए क्राइटेिरया से पटेलों को भी साधा है। यानी एक ओर आर्थिक तो दूसरी ओर कोर्ट के मापदंड को नजरअंदाज कर जाटों के लिए आरक्षण का लाभ देने का संदेश देकर बीजेपी अपनी उस लाइन से हटकर आगे बढ़ती हुई देखी जा रही है जो संघ की सोच से पूरी तरह इत्तेफाक नहीं रखती है। कभी बीजेपी को ब्राह्मण, बनिया और सवर्णों की हिमायती पार्टी कहा जाता था जिसे शायद अब अहसास हो गया है कि सिर्फ विकास के नाम पर सरकार तो बनाई जा सकती है लेकिन अगर दोबारा सरकार में लौटना है तो फिर उसे दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग की राजनीति कुछ उसी तरह करना होगी जैसा कि कांग्रेस 50 साल तक करती रही है।
 
बात मध्यप्रदेश में जब नौकरी में आरक्षण के द्वंद्व से बाहर निकलने को जूझ रही शिवराज सरकार की होगी तो देखना दिलचस्प होगा कि सभी समुदायों का अभी तक भरोसा जीतकर विकास की राजनीति करने वाले चौहान के बारे में अब वर्ग विशेष में क्या सोच बनती है। और इसका असर िसयासत में क्या गुल खिलाता है। क्या ये कांग्रेस के लिए एक मौका है कि वो बीजेपी सरकार के प्रति यदि आक्रोश सामने आता है तो उसके कैसे भुना पाती है। उसके िलए भी इसका विरोध करना आसान नहीं है। प्रदेश में शिवराज ने एक आयोग का गठन कर रखा है। देखना दिलचस्प होगा कि सिंहस्थ के वैचारिक महाकुंभ में शामिल होने आ रहे मोहन भागवत जो शबरी महाकुंभ में आदिवासियों के साथ स्नान कर एक नया संदेश देने जा रहे हैं उसका आरक्षण व्यवस्था पर क्या असर पड़ता है तो इससे पहले बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह सामाजिक समरसता की आड़ में वर्ग विशेष को लुभाएंगे। दोनों का सियासी मकसद यूपी चुनाव से जुड़ा है लेकिन जिस तरह बीजेपी शासित मध्यप्रदेश समेत 3 राज्यों गुजरात और हरियाणा में आरक्षण ने एक नई बहस छेड़ी है आखिर वो बीजेपी राष्ट्रीय स्तर पर कब और कैसे साफ करती है। 

क्या ऐसे में बीजेपी पर मौका परस्ती और सुविधा की राजनीति करने के आरोप नहीं लगेंगे और उसके दोहरे चरित्र पर विरोधी सवाल खड़े नहीं करेंगे जिसन राष्ट्रवाद और भारत माता की जय को लेकर जो हो हल्ला मचाया था वो आरक्षण के नाम पर अलग-अलग राज्यों में नए फार्मूले के साथ आगे बढ़ रही है। यहां ये कहना गलत नहीं होगा कि कम से कम बीजेपी प्रदेश में जानती है िक दलित और आदिवासी नाराज हुए तो 5 से 6 फीसदी वोटरों की नाराजगी उसके लिए बड़ी परेशानी खड़ा कर सकती है। लेकिन उसे ये भी ध्यान रखना होगा कि कहीं नौकरी में आरक्षण खत्म करने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने से सवर्ण वर्ग तो खफा नहीं हो जाएगा।

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