असम की जीत : बीजेपी ने राजनीतिक परिश्रम की नई कहानी लिखी
असम में अपने बूते बहुमत ही नहीं शानदार जीत हासिल कर भारतीय जनता पार्टी ने राजनीतिक परिश्रम की एक नई कहानी लिखी है जिसे लंबे समय तक पढ़ा जाएगा। कई दशकों तक बिना किसी नतीजे के परिश्रम करते रहना और धीरे-धीरे एक-एक सीट हासिल करते हुए 90 से अधिक सीटों को जीत लेना एक बड़ी राजनीतिक घटना है। राज्यों में ऐसी घटना पांच साल पहले पश्चिम बंगाल में घटी थी जब पहली बार ममता बनर्जी ने अपने बूते कम संसाधनों के बावजूद दशकों से जमी सीपीएम की सत्ता को जड़ से उखाड़ फेंका था। यह भी सही है कि तब ममता के पास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक, कार्यकर्ता और बीजेपी के नेताओं की तरह राष्ट्रीय और कई राज्यों से लाए गए मानव संसाधन नहीं थे, मगर असम की जीत कई मायनों में ऐतिहासिक है।
असम में पांव जमाने के लिए भारतीय जनता पार्टी से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता 50 के दशक से परिश्रम कर रहे हैं। 60-65 सालों तक उनकी ही मेहनत की बुनियाद का लाभ उठाते हुए बीजेपी ने जगह बना ही ली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं के परिश्रम के किस्से इस बड़ी जीत की गाथा में जगह नहीं पा सकेंगे और हम पत्रकार शायद उन बिखरे तिनकों को चुनकर जमा भी न कर सकें लेकिन यह जीत अन्य राज्यों में संघ के गुमनाम कार्यकर्ताओं को जोश से भर देगी। यह और बात है कि इस जीत के पीछे सांप्रदायिक या ध्रुवीकरण की राजनीति का विश्लेषण भी आता रहेगा लेकिन आर एस एस के कार्यकर्ताओं ने कुछ तो ठोस बुनियाद डाली होगी जिसका लाभ भारतीय जनता पार्टी ने अपने सबसे अच्छे वक्त में बेहतर तरीके से किया है।
भारतीय राजनीति में ऐसे करिश्मे पहले भी होते रहे हैं। दिल्ली में बिल्कुल एक साल पुरानी एक पार्टी 15 साल से जमी शीला दीक्षित की सरकार को उखाड़ फेंकती है। आम आदमी पार्टी की इस जीत ने दिल्ली में बीजेपी की हार को अन्य राज्यों में कांग्रेस की हार जितना लंबा कर दिया। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में हारने के बाद कांग्रेस वापसी नहीं कर सकी। बीजेपी भी दिल्ली के अलावा उत्तर प्रदेश में वापसी नहीं कर सकी। उड़ीसा में कांग्रेस और बीजेपी दोनों नवीन पटनायक को विस्थापित नहीं कर सके। बिहार में दस साल तक सत्ता में रहने के बाद फिर से विपक्ष में आ गई। इस लिहाज़ से बीजेपी के पास बिहार, उत्तर प्रदेश और दिल्ली वैसे ही हैं जैसे कांग्रेस के लिए मध्य प्रदेश, गुजरात और उत्तर प्रदेश।
इसके बाद भी बीजेपी अन्य दलों से अलग है। वह नई जगहों पर जीत रही है, विस्तार कर रही है। मुद्दों और नेतृत्व का पैमाना स्थायी नहीं होता मगर राजनीति में आर एस एस और भारतीय जनता पार्टी ने परिश्रम को फिर से मजबूत पैमाने के रूप में स्थापित किया है। भारतीय जनता पार्टी का एक नाम भारतीय जुझारू पार्टी भी हो सकता है। विरोधी भारतीय झगड़ा पार्टी और जुमला पार्टी कहते हैं तो उन्हें जुझारू पार्टी कहने की उदारता दिखानी चाहिए।
भारतीय जनता पार्टी प्रयास करती है। पुराने को नया करती है, नए को बड़ा करती है। जातियों को जोड़ती है, स्थानीय लोक देवताओं को पूजती है, इतिहास के नायकों को उभार लाती है, नई पार्टी बनवा देती है( केरल में), पुरानी पार्टी से नेताओं को ले आती है, अपने मुद्दों को छोड़ देती है, दूसरों के मुद्दों को ले लेती है, सब करती है। इस लिहाज से कांग्रेस एक आलसी पार्टी है। भारतीय जनता पार्टी राम का नाम लेती है तो कांग्रेस राम भरोसे रहने वाली पार्टी है।
असम की जीत राजनीति में जीतने की लालसा का बेजोड़ उदाहरण है। उसकी जीत भले ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के परिश्रम के कारण संभव हो सकी है लेकिन इस क्रम में भारतीय जनता पार्टी ने एक और बदलाव किया है। यह पार्टी अब एक प्लेटफार्म की तरह बर्ताव करती है। जैसे ट्विटर के प्लेटफार्म पर कोई भी आ-जा सकता है लेकिन ट्वीटर का मालिकाना हक किसी और के पास रहेगा। बीजेपी के अपने नेता फेल कर जाते हैं तो वह दूसरे दलों से नेता लाकर अपना नेता बना लेती है। लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर कितने ही पूर्व कांग्रेसी जीत गए। असम में हेमंता शर्मा जब कांग्रेस में थे तब बीजेपी उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाती थी, लेकिन जब वे बीजेपी में गए तो कांग्रेस उनके भ्रष्टाचार की पोल नहीं खोल सकी। सोनोवाल भी असम गण परिषद के नेता रह चुके हैं। कांग्रेस में भी एक ऐसे नेता आए मगर वे आज भी कांग्रेस के भीतर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रतिनिधि समझे जाते हैं। गुजरात के शंकर सिंह वाघेला।
2014 की हार के बाद कांग्रेस ने कहीं भी वापसी का प्रदर्शन नहीं किया। कांग्रेस ने अपनी राजनीति से विकल्प ढूंढ रहे लोगों को आकर्षित नहीं किया है। राष्ट्रीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी भी 2 सीटों पर पहुंच गई थी। उस समय संसद कवर करने वाले पत्रकार बताते हैं कि दो सीट के बाद भी भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने संसद में कभी नहीं लगने दिया कि पार्टी हारी है। दो पर पहुंच कर भारतीय जनता पार्टी एक बार वाजपेयी सरकार के रूप में और दस साल तक विपक्ष मे रहने के बाद इस बार नरेंद्र मोदी सरकार के रूप में कामयाबी हासिल कर सकी है। क्या 44 सीटों पर पहुंच चुकी कांग्रेस यह करामात दिखा सकती है? मौजूदा हालात में तो नहीं लगता है। कांग्रेस ने अपनी किसी हार की गहन समीक्षा नहीं की। आंतरिक रूप से की होगी मगर सार्वजनिक रूप से उसका कोई लक्षण नहीं दिखता है। भारतीय जनता पार्टी इसके लिए कांग्रेस की आलोचना करती है लेकिन आप उन दस सालों का भारतीय जनता पार्टी का इतिहास निकालकर देंखे जब वह 2004 में केंद्र से विस्थापित हुई थी। तब भारतीय जनता पार्टी के बारे में लोग लिखा करते थे कि इसने हार से नहीं सीखा है। पार्टी एकजुट नहीं है। गुटबाजी है।
असम की जीत का पाठ कई तरीके से किया जाएगा। केरल में मतदान प्रतिशत बढ़ा लेना छोटी कामयाबी नहीं है। इसका मतलब है कि संगठन क्षमता के रूप में भारतीय जनता पार्टी एक सजीव पार्टी है। सक्रिय दल है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कारण हो सकता है मगर अब यह भाजपा का अपना चरित्र भी है। उसके कार्यकर्ता सक्रिय नज़र आते हैं। पार्टी के विचारों से लैस नज़र आते हैं। कांग्रेस का कार्यकर्ता कंफ्यूज़ रहता है। असम के लिए भारतीय जनता पार्टी को बधाई।
रवीश कुमार...
(इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)
असम में पांव जमाने के लिए भारतीय जनता पार्टी से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता 50 के दशक से परिश्रम कर रहे हैं। 60-65 सालों तक उनकी ही मेहनत की बुनियाद का लाभ उठाते हुए बीजेपी ने जगह बना ही ली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं के परिश्रम के किस्से इस बड़ी जीत की गाथा में जगह नहीं पा सकेंगे और हम पत्रकार शायद उन बिखरे तिनकों को चुनकर जमा भी न कर सकें लेकिन यह जीत अन्य राज्यों में संघ के गुमनाम कार्यकर्ताओं को जोश से भर देगी। यह और बात है कि इस जीत के पीछे सांप्रदायिक या ध्रुवीकरण की राजनीति का विश्लेषण भी आता रहेगा लेकिन आर एस एस के कार्यकर्ताओं ने कुछ तो ठोस बुनियाद डाली होगी जिसका लाभ भारतीय जनता पार्टी ने अपने सबसे अच्छे वक्त में बेहतर तरीके से किया है।
भारतीय राजनीति में ऐसे करिश्मे पहले भी होते रहे हैं। दिल्ली में बिल्कुल एक साल पुरानी एक पार्टी 15 साल से जमी शीला दीक्षित की सरकार को उखाड़ फेंकती है। आम आदमी पार्टी की इस जीत ने दिल्ली में बीजेपी की हार को अन्य राज्यों में कांग्रेस की हार जितना लंबा कर दिया। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में हारने के बाद कांग्रेस वापसी नहीं कर सकी। बीजेपी भी दिल्ली के अलावा उत्तर प्रदेश में वापसी नहीं कर सकी। उड़ीसा में कांग्रेस और बीजेपी दोनों नवीन पटनायक को विस्थापित नहीं कर सके। बिहार में दस साल तक सत्ता में रहने के बाद फिर से विपक्ष में आ गई। इस लिहाज़ से बीजेपी के पास बिहार, उत्तर प्रदेश और दिल्ली वैसे ही हैं जैसे कांग्रेस के लिए मध्य प्रदेश, गुजरात और उत्तर प्रदेश।
इसके बाद भी बीजेपी अन्य दलों से अलग है। वह नई जगहों पर जीत रही है, विस्तार कर रही है। मुद्दों और नेतृत्व का पैमाना स्थायी नहीं होता मगर राजनीति में आर एस एस और भारतीय जनता पार्टी ने परिश्रम को फिर से मजबूत पैमाने के रूप में स्थापित किया है। भारतीय जनता पार्टी का एक नाम भारतीय जुझारू पार्टी भी हो सकता है। विरोधी भारतीय झगड़ा पार्टी और जुमला पार्टी कहते हैं तो उन्हें जुझारू पार्टी कहने की उदारता दिखानी चाहिए।
भारतीय जनता पार्टी प्रयास करती है। पुराने को नया करती है, नए को बड़ा करती है। जातियों को जोड़ती है, स्थानीय लोक देवताओं को पूजती है, इतिहास के नायकों को उभार लाती है, नई पार्टी बनवा देती है( केरल में), पुरानी पार्टी से नेताओं को ले आती है, अपने मुद्दों को छोड़ देती है, दूसरों के मुद्दों को ले लेती है, सब करती है। इस लिहाज से कांग्रेस एक आलसी पार्टी है। भारतीय जनता पार्टी राम का नाम लेती है तो कांग्रेस राम भरोसे रहने वाली पार्टी है।
असम की जीत राजनीति में जीतने की लालसा का बेजोड़ उदाहरण है। उसकी जीत भले ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के परिश्रम के कारण संभव हो सकी है लेकिन इस क्रम में भारतीय जनता पार्टी ने एक और बदलाव किया है। यह पार्टी अब एक प्लेटफार्म की तरह बर्ताव करती है। जैसे ट्विटर के प्लेटफार्म पर कोई भी आ-जा सकता है लेकिन ट्वीटर का मालिकाना हक किसी और के पास रहेगा। बीजेपी के अपने नेता फेल कर जाते हैं तो वह दूसरे दलों से नेता लाकर अपना नेता बना लेती है। लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर कितने ही पूर्व कांग्रेसी जीत गए। असम में हेमंता शर्मा जब कांग्रेस में थे तब बीजेपी उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाती थी, लेकिन जब वे बीजेपी में गए तो कांग्रेस उनके भ्रष्टाचार की पोल नहीं खोल सकी। सोनोवाल भी असम गण परिषद के नेता रह चुके हैं। कांग्रेस में भी एक ऐसे नेता आए मगर वे आज भी कांग्रेस के भीतर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रतिनिधि समझे जाते हैं। गुजरात के शंकर सिंह वाघेला।
2014 की हार के बाद कांग्रेस ने कहीं भी वापसी का प्रदर्शन नहीं किया। कांग्रेस ने अपनी राजनीति से विकल्प ढूंढ रहे लोगों को आकर्षित नहीं किया है। राष्ट्रीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी भी 2 सीटों पर पहुंच गई थी। उस समय संसद कवर करने वाले पत्रकार बताते हैं कि दो सीट के बाद भी भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने संसद में कभी नहीं लगने दिया कि पार्टी हारी है। दो पर पहुंच कर भारतीय जनता पार्टी एक बार वाजपेयी सरकार के रूप में और दस साल तक विपक्ष मे रहने के बाद इस बार नरेंद्र मोदी सरकार के रूप में कामयाबी हासिल कर सकी है। क्या 44 सीटों पर पहुंच चुकी कांग्रेस यह करामात दिखा सकती है? मौजूदा हालात में तो नहीं लगता है। कांग्रेस ने अपनी किसी हार की गहन समीक्षा नहीं की। आंतरिक रूप से की होगी मगर सार्वजनिक रूप से उसका कोई लक्षण नहीं दिखता है। भारतीय जनता पार्टी इसके लिए कांग्रेस की आलोचना करती है लेकिन आप उन दस सालों का भारतीय जनता पार्टी का इतिहास निकालकर देंखे जब वह 2004 में केंद्र से विस्थापित हुई थी। तब भारतीय जनता पार्टी के बारे में लोग लिखा करते थे कि इसने हार से नहीं सीखा है। पार्टी एकजुट नहीं है। गुटबाजी है।
असम की जीत का पाठ कई तरीके से किया जाएगा। केरल में मतदान प्रतिशत बढ़ा लेना छोटी कामयाबी नहीं है। इसका मतलब है कि संगठन क्षमता के रूप में भारतीय जनता पार्टी एक सजीव पार्टी है। सक्रिय दल है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कारण हो सकता है मगर अब यह भाजपा का अपना चरित्र भी है। उसके कार्यकर्ता सक्रिय नज़र आते हैं। पार्टी के विचारों से लैस नज़र आते हैं। कांग्रेस का कार्यकर्ता कंफ्यूज़ रहता है। असम के लिए भारतीय जनता पार्टी को बधाई।
रवीश कुमार...
(इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)
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