तो शिवराज ने सबकी दुकान बंदकर दी!
(राकेश अग्निहोत्री)सवाल दर सवाल
शिवराज सिंह चौहान ने तीसरी पारी ने, वह भी सिंहस्थ के मिथक को तोड़कर वादे के अनुरूप तय समय के अन्दर मंत्रीमण्डल का विस्तार कर जो धमाका किया है, उसकी गुंज न सिर्फ सुबे की राजनीति में एक नई बहस का मुद्दा बनेगी। बल्कि इस धमक दिल्ली की राजनीति से लेकर बीजेपी की सियासत में छत्रपों के वर्चस्व को भी एक नई दिशा देगी। उम्रदराज मंत्रियों की कैबिनेट से छुट्टी हो या फिर राज्यमंत्रियों की पदोन्नति नहीं करना, संकेत इसके साथ और भी बहुत कुछ छुपे हैं। ऐसे में सवाल खड़ा होना लाजमी है कि क्या शिवराज के इस कदम का मतलब मोदी के खौफ का असर कम होना है या फिर इसे मोदी ने ज्यादा तवज्जो न देते हुए केन्द्रीय कैबिनेट की नई स्िक्रप्ट के लिए पार्टी के छत्रपों को साधकर बड़े हित साधे हैं जिसके दूरगामी परिणाम सत्ता और संगठन में आने वाले समय में दिखाई पड़ सकते हैं। सवाल यह भी खड़ा होता है कि शिवराज ने श्यामला हिल्स पर नजर लगाये बैठे सभी महत्वाकांक्षी नेताओं की दुकान बंद कर दी है और अब किसी में साहस नहीं है कि चैहान के फैसले पर सवाल खड़े करे चाहे वो फिर मध्यप्रदेश की राजनीति में हासियें पर पहुंच गये या फिर दिल्ली पर दबदबा रखने वाले हों।
शिवराज सिंह चौहान ने तीसरी पारी ने, वह भी सिंहस्थ के मिथक को तोड़कर वादे के अनुरूप तय समय के अन्दर मंत्रीमण्डल का विस्तार कर जो धमाका किया है, उसकी गुंज न सिर्फ सुबे की राजनीति में एक नई बहस का मुद्दा बनेगी। बल्कि इस धमक दिल्ली की राजनीति से लेकर बीजेपी की सियासत में छत्रपों के वर्चस्व को भी एक नई दिशा देगी। उम्रदराज मंत्रियों की कैबिनेट से छुट्टी हो या फिर राज्यमंत्रियों की पदोन्नति नहीं करना, संकेत इसके साथ और भी बहुत कुछ छुपे हैं। ऐसे में सवाल खड़ा होना लाजमी है कि क्या शिवराज के इस कदम का मतलब मोदी के खौफ का असर कम होना है या फिर इसे मोदी ने ज्यादा तवज्जो न देते हुए केन्द्रीय कैबिनेट की नई स्िक्रप्ट के लिए पार्टी के छत्रपों को साधकर बड़े हित साधे हैं जिसके दूरगामी परिणाम सत्ता और संगठन में आने वाले समय में दिखाई पड़ सकते हैं। सवाल यह भी खड़ा होता है कि शिवराज ने श्यामला हिल्स पर नजर लगाये बैठे सभी महत्वाकांक्षी नेताओं की दुकान बंद कर दी है और अब किसी में साहस नहीं है कि चैहान के फैसले पर सवाल खड़े करे चाहे वो फिर मध्यप्रदेश की राजनीति में हासियें पर पहुंच गये या फिर दिल्ली पर दबदबा रखने वाले हों।
शिवराज ने चाइना से लौटकर जो वादा किया था वो 30 जून को विस्तारकर आखिर पूरा कर दिया। मोदी की गाइडलाइन 75 पार कर चुके बाबूलाल गौर और सरताज सिंह की मंत्रिमण्डल से रवानगी कर मुख्यमंत्री ने मध्यप्रदेश की राजनीति में एक बड़ा संदेश दे दिया है जिससे युवा और उर्जावान चेहरों को आगे लाना बीजेपी की ही नहीं कांग्रेस की भी मजबूरी होगी। तो संघ के भरोसेमंद माने जाने वाले जयभान सिंह पवैया की नई इन्ट्री के साथ अर्चना चिटनिस की कैबिनेट में नई रिइन्ट्री के भी अपने मायने हैं। जयभान के साथ रूस्तम सिंह जिनका ताल्लुक ग्वालियर-चम्बल की राजनीति से है बिना केन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह को भरोसे में लिए शिवराज के लिए संभव नहीं था। आदिवासी नेता ओमप्रकाश धुर्वे को महाकौशल की राजनीति में फग्गन सिंह की काट के तौर पर तोमर की पसंद पर आगे ही लाया गया है। विश्वास सारंग को राज्य मंत्री बनाकर जिस तरह सुरेन्द्र पटवा और दीपक जोशी के बराबर ला खड़ा कर दिया गया है उसका रास्ता गौर के बाहर जाने से बना है लेकिन नेता पुत्रों की इस तिकड़ी से राजधानी के स्थानीय राजनीति में एक नया समीकरण बनना तय है। अरविन्द मेनन की रवानगी और सुहास भगत की बीजेपी में संजय पाठक की मंत्रिमण्डल में धमाकेदार वापसी का मतलब साफ है कि शिवराज का वीटो चला और जिसका महत्वपूर्ण संदेश कांग्रेस के लिए है कि अगले चुनाव से पहले जब वो कांग्रेस के वर्तमान विधायकोें को बीजेपी से जोड़ने की मुहिम चलायेंगे तो उन्हें भरोसा हो जायेगा सरकार बनने पर वो मंत्री बन सकते हैं। विन्ध्य की राजनीति में केदार शुक्ला का पत्ता काटकर क्षत्रिय नेता की इन्ट्री के मायने कांग्रेस से ज्यादा अजय सिंह की घेराबंदी है जिसके लिए पहले संजय पाठक और नारायण त्रिपाठी को बीजेपी पहले ही गले लगा हो चुकी है। सूर्यप्रकाश मीणा यानि की विदिशा की राजनीति में सुषमा की पसंद और राघवजी का तोड़ माना जा रहा है। बुंदेलखण्ड से ललिता यादव की ताजपोशी को बाबूलाल गौर के यादव समाज पर दबदबे एवं समाज के संतुलन बनाये रखने के साथ क्षेत्र की राजनीति में एक और महिला नेत्री का उदय वो जब बमुश्किल कुसुम महेदेले अपनी कुर्सी बचाने में सफल हो गयी। कई दिग्गजों के मंसूबों पर पानी फिर गया तो क्षेत्रीय और जातीय संतुलन पर जरूर सवाल खड़े होंगे। आरक्षण में पदोन्नति के मुद्दे पर दलित समाज के नये पैरोकार बनकर सामने आये शिवराज ने इस समाज का वर्चस्व और मंत्रिमण्डल में नहीं बढ़ाया जिसके निहितार्थ निकाले जाना लाजमी है। मुख्यमंत्री ने दिल्ली में अमित शाह से लेकर सुषमा स्वराज को भरोसे में लिया तो इस बार अप्रत्याशित तौर पर प्रदेश प्रभारी विनय सहस्रबुद्धे ने संतुलन और सामंजस्य बनाकर संघ की लाइन को सुहास भगत के साथ मिलकर आगे बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभायी जिनके दबाव के चलते अगले चुनाव नहीं लड़ने वाले गौर और सरताज को जाना पड़ा। मध्यप्रदेश के दिल्ली में सत्ता और संगठन की राजनीति से जुड़े जिस नेता की खूब चली वो और कोई नहीं नरेन्द्र तोमर हैं जो शिवराज, नन्दुभैया, विनय सहस्रबुद्धे, सुहास भगत पांचवें इकलोते नेता थे। मालवा खासतौर से इन्दौर को इस विस्तार जगह नहीं मिलने का मतलब साफ है कि कैलाश विजयवर्गीय की कुर्सी पर उनकी पंसद यानि रमेश मेंदौला नहीं तो फिर और कोई नहीं। सुदर्शन गुप्ता का मंत्रिमण्डल में शामिल नहीं किया जाना ताई और भाई की आपसी रस्साकशी का फायदा चौहान ने खूब उठाया।
यह कहना गलत नहीं होगा कि जिस शिवराज के सिंहस्थ के बाद दिल्ली जाने की रोज कयास लगाये जाते थे यदि उन अटकलों पर विराम लग गया है तो फिर संदेश साफ है कि मोदी ने क्षत्रपों को छेड़ने का दुस्साहस नहीं किया जिसके पीछे उनकी अपनी रणनीति हो सकती है लेकिन चौहान ने एक नया कीर्तिमान रचकर न सिर्फ मध्यप्रदेश के अबतक के सभी मुख्यमंत्रियों को पीछे छोड़ दिया है बल्कि अटल, आडवाणी युग से बाहर निकलकर मोदी और शाह के युग में प्रवेश कर बीजेपी की अन्दरूनी राजनीति में अपनी ताकत और रसूख का लोहा एक बार फिर मनवाया जिसका फायदा बीजेपी शासित राज्यों दूसरे मुख्यमंत्रियों चाहे वो वसुंधरा राजे, रमन सिंह को मिलना तय है। चौहान ने एक तरह से मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नजर गड़ाये बैठे दूसरे महत्वाकांक्षी नेताओं की दुकान मानो पूरी तरह से बंद कर दी है। जो अभी तक यह सोचते थे कि मोदी और शाह चौहान का सियासी कद बढ़ाकर उन्हें केन्द्र की राजनीति में ले आयेंगे। संदेश इस विस्तार में उनके लिए भी छिपा है जो व्यापम की जांच पर नजर गड़ाये बैठे थे। संदेश इसके जरिये संघ ने भी दे दिया है कि मोदी और शाह आप दिल्ली में जो भी फैसले करें उसके लिए स्वतंत्र है लेकिन आपकी तरह अपनी दम पर सरकार बनाने वाले मुख्यमंत्री को छेड़ने की हिमाकत ना करें। क्योंकि संघ ने जब दलित आदिवासी के साथ मुस्लिम वोट बैंक पर भी पैनी नजर लगा रखी है तब सेक्युलर शिवराज की जरूरत महसूस हो रही है, खासतौर पर उत्तरप्रदेश के चुनाव को देखते हुए। इस फेरबदल को मध्यप्रदेश के मिशन 2018 के विधानसभा चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा है जिसकी कमान अब खुले तौर पर शिवराज को सौंप दी गयी है जिसके अगले चरण में जमावट संगठन में देखने को मिलेगी तो मंत्रियों को नये विभाग और नये जिलों का प्रभार महत्वपूर्ण कड़ी होगी। कुल मिलाकर मोदी सरकार के दो साल पूरे होने पर जब सबकी नजर केन्द्रीय मंत्रिमण्डल के विस्तार और अमित शाह की पुरानी टीम में बदलाव पर टिकी थी तब शिवराज ने उसका इन्तजार न करते हुए अपनी कैबिनेेट का विस्तार कर जो धमाका किया है उसका मतलब साफ है कि संसदीय बोर्ड के सदस्य होने के नाते इस मुख्यमंत्री की धमक दिल्ली में बीजेपी के दूसरे मुख्यमंत्रियों की तुलना में कुछ ज्यादा और अलग है। यह शक्स जो सोच लेता है वो पूरा करके ही मानता है। इस लो प्रोफाइल नेता को कम आंकता है तो वो इसकी भूल है। क्योंकि थकाकर और छकाकर अपने फैसलों को अंजाम तक पहुंचाने में शिवराज में महारथ हासिल हो सकी है और इसे नजरअंदाज व नाराज कर बीजेपी मध्यप्रदेश चौथी बार सरकार बनाकर सपना यदि देखती है तो वह कभी पूरा नहीं होगा। कैबिनेट को लेकर झण्डेवाला से लेकर अशोका रोड और कई मंत्रियों को दस्तक देने के बावजूद यदि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से शिवराज की मुलाकात नहीं हो पायी इसका अर्थ निकालने का जिम्मा हम पाठकों पर छोड़ते हैं क्या मोदी की नजर में यह कोई बड़ा मिशन नहीं था फिर प्रधानमंत्री की नजर में मुख्यमंत्री की छवि को लेकर कोई राज छिपा है।
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