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मोदी के आरक्षण पर भागवत का वीटो...

राकेश अग्निहोत्री(सवाल दर सवाल)
गुजरात के पटेल आंदोलन के बाद हरियाणा में आरक्षण की मांग पर अड़े जाट आंदोलन ने जब मोदी सरकार की नाक में दम कर रखा है तब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण व्यवस्था में समीक्षा की जरूरत और सुझाव देकर एक नई बहस छेड़ दी है। बिहार चुनाव में भागवत के ऐसे ही बयान पर लाख सफाई देने के बाद जिस बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा था उसकी चिंताएं एक बार फिर बढ़ गई हैं क्योंकि असम, पश्चिम बंगाल के बाद उसे उस यूपी में चुनाव का सामना करना है जहां का प्रतिनिधित्व संसद में कोई और नहीं, खुद पीएम मोदी करते हैं। और जहां लोकसभा चुनाव में अमित शाह के नेतृत्व में जाति-धर्म से ऊपर उठकर मतदाताओं ने गैरबीजेपी दलों का सफाया कर दिया था। सवाल खड़ा होना लाजमी है कि भागवत के बयान से पल्ला झाड़ने के बाद पहले ही नरेंद्र मोदी वर्तमान आरक्षण सिस्टम को जारी रखने का भरोसा देश को दिला चुके हैं और उनके सबसे लोकप्रिय सीएम शिवराज सिंह चौहान तो चुनौती दे चुके हैं कि कोई माई का लाल आरक्षण खत्म नहीं कर सकता। तो फिर संघ प्रमुख भागवत का ये वीटो कैसे चलेगा? सवाल ये भी खड़ा होता है कि क्या संघ और बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के बीच समन्वय का अभाव है या फिर दोनों सोची-समझी रणनीति के तहत आगे बढ़ रहे हैं? जिसमें यदि बीजेपी को चिंता सियासी नफा-नुकसान की है तो संघ को चिंता समाज और देश की है जो एक बड़े लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ रहा है।

संसद का बजट सत्र शुरू हो चुका है और संघ की प्रतिनिधि सभा की बैठक भी एक पखवाड़े बाद होने जा रही है। देश में रोहित बेलुना की आड़ में दलित राजनीति से आगे बढ़कर जेएनयू और कन्हैया की आड़ में राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रद्रोह को पीछे छोड़ते हुए संघवाद तक जा पहुंची है। ऐसे में जब युवा खासतौर से छात्र जब विचारधारा की आड़ में लामबंद हो रहे हैं और पटेल-जाट अपनी मांग को लेकर सड़क पर आ चुके हैं तब आरक्षण को लेकर मोहन भागवत के बयान के निहितार्थ निकाले जाना लाजमी है। तमाम अंतरविरोध और बाहरी हमलों से जूझ रही तो बीजेपी यदि बैकफुट पर नजर आ रही है तो विरोध दल भी सरकार के लिए मुसीबत बने हुए हैं। मायावती, नीतीश कुमार, केसी त्यागी, पीएल पुनिया, मलिकार्जुन खड़गे और आनंद शर्मा भागवत के बयान पर सवाल खड़ा करने में पीछे नहीं रहे। इस बहस में संसदीय मंत्री वेंकैया नायडू ने ये कहकर हस्तक्षेप किया कि सुझाव हर तरफ से आ रहे हैं और अच्छे सुझाव को देखा जाएगा। उधर संघ के वरिष्ठ नेता एमजी वैद्य ने भागवत के बयान को और आगे बढ़ाते हुए प्रतिप्रश्न कर कुछ नए सवाल खड़े किए जिनका कहना है कि पिछड़ा कौन है इसको तय कौन करेगा, कम से कम राजनेता कभी नहीं करेंगे, क्योंकि वो उनका वोट बैंक है। तो ऐसे में गैर राजनीतिक व्यक्ित और फोरम की जरूरत मोहन भागवत ने जताई है। सही मायने तो भागवत ही बताएंगे लेकिन मेरी यानी वैद्य की नजर में जिसका निहित स्वार्थ है आरक्षण में उनसे हटकर लोग इसके लिए काम करें। कुल मिलाकर बयान भागवत का है और निशाना तमाम विपक्ष दल पीएम नरेंद्र मोदी पर ये कहकर साध रहे हैं कि वो मन की बात में भागवत की बात पर अपनी बात खुलकर कहें। दरअसल मोहन भागवत ने कोलकाता में चैम्बर ऑफ कॉमर्स के एक सत्र के दौरान ये कहकर एक नई बहस छेड़ दी थी कि बहुत सारे लोग आरक्षण की मांग कर रहे हैं, मुझे लगता है कि आरक्षण की पात्रता पर फैसला करने के लिए एक समिति का गठन करने चाहिए जो गैर राजनीतिक हो ताकि कोई निहित स्वार्थ शामिल न हों। बकौल भागवत समाज के किस वर्ग को आगे लाया जाए और उन्हें कब तक आरक्षण दिया जाए इसे लेकर एक समयबद्ध योजना तैयार की जाना चाहिए। किसी खास जाति में जन्म लेने से किसी व्यक्ति को मौका न मिले ऐसा नहीं होना चाहिए। भागवत ने कहा है कि आजादी के बाद बीआर अंबेडकर ने कहा था कि जब तक सामाजिक भेदभाव रहेगा आरक्षण का मुद्दा भी रहेगा। सवाल खड़ा होना लाजमी है कि क्योंकि आरक्षण को लेकर बवाल यदि फिलहाल हरियाणा में मचा है जिसकी अगुवाई जाट समुदाय कर रहा है तो इससे पहले पीएम मोदी के अपने गुजरात में पटेल समुदाय भी आंदोलन को हवा दे चुका है। इसका असर राजस्थान तक दिखाई देने लगा है। शायद इसे संयोग ही कहा जाएगा कि तीनों राज्यों के साथ केंद्र में भी बीजेपी की अपनी सरकार है। ऐसे में संघ प्रमुख का बयान कुछ ज्यादा ही मायने रखता है। क्योंकि संघ ने ही नरेंद्र मोदी को पीएम बनाने में और उन्हें फ्री हैंड देने में बड़ी भूमिका निभाई है। यहां सवाल ये खड़ा होता है कि आखिर भागवत संदेश किसको देना चाहते हैं और उनकी अपेक्षाएं किससे और क्या हैं? पीएम और राष्ट्रीय अध्यक्ष तक अपनी पहुंचाने की संघ ने अपनी व्यवस्था जब बना रखी है तब सार्वजनिक फोरम पर इस बात का मतलब साफ है कि संदेश सरकार और बीजेपी से ज्यादा देश के लिए है जो नहीं चाहते कि आरक्षण की मांग को लेकर समाज में विघटन की स्थिति बने। प्रतिनिधि सभा की बैठकों में संघ अपनी सोच को लेकर पहले भी कई प्रस्ताव पारित कर चुका है तो एक बार फिर उसके प्रचारक और पदाधिकारी नागौर में जमा हो रहे हैं। निश्चित तौर पर एक बार फिर इस बैठक में आरक्षण पर संघ अपना रुख साफ करेगा। शायद संघ की सोच जरूरतमंद लोगों को आरक्षण का लाभ दिलाने की ज्यादा है न कि उसकी दिलचस्पी दलित और पिछड़ों का हक छीनने में। लेकिन उसे अच्छी तरह मालूम है कि सियासी नफा-नुकसान के चलते मोदी और उनके सिपहसालारों के लिए फिलहाल भागवत की बात का समर्थन करने का साहस किसी में नहीं है। यहीं पर नया सवाल खड़ा होता है कि बिहार में मिली हार के बाद जब बीजेपी असम, पश्चिम बंगाल से आगे बढ़कर यूपी का एजेंडा सेट कर रही है तब भागवत ने ये बयान यदि सोच समझकर दिया है तो फिर इसके मायने क्या हैं? क्या जब छात्र राजनीति की आड़ में युवा नेतृत्व अपनी ताकत का अहसास करा रहा है तब क्या संघ अपने मकसद में कामयाब होगा या यूं कहें कि सरसंघ चालक मोहन भागवत जिस गैर राजनीतिक कमेटी के गठन की जरूरत की आड़ में वीटो लगाने की मंशा रखते हैं क्या मोदी सरकार उसको गंभीरता से लेगी या फिर संघ और बीजेपी के बीच ये बढ़ती तल्खियों का कारण बनेगा।

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